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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६
जनवरी-जन २००४
जैन दर्शन में निहित वैज्ञानिक तत्व*
(गणित के विशेष सन्दर्भ में)
डॉ० अनुपम जैन* *
भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियाँ प्रचलित हैं। वैदिक परम्परा के अत्यन्त प्राचीन लिपिबद्ध धर्म ग्रंथ ऋग्वेद में भी श्रमण संस्कृति की जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव एवं इस परम्परा के अन्य उल्लेखों से इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है।
जैन परम्परा का एक सुव्यस्थित दर्शन है। परस्पर विरोधी विचार धाराओं में समन्वय स्थापित कर मानवता के विकास का पथ प्रशस्त करने वाले अनेकान्त के सिद्धान्त का प्रतिपादन एवं समाज में सुख, शान्ति एवं स्थायित्व देने वाली अहिंसा की तार्किक सुसंगत, सूक्ष्म विवेचना इस दर्शन की अद्वितीय विशेषतायें हैं।
अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्त के सिद्धान्तों को अपने जीवन में आत्मसात कर तदनुरूप आचरण करने वाले महान निस्पृही जैनाचार्यों ने भगवान् महावीर द्वारा दिये गये उपदेशों के आधार पर जैन दर्शन को विवेचित करने वाली अनेक कृतियाँ दी हैं। इन कृतियों के माध्यम से अनेकानेक दार्शनिक समस्याओं का सुस्पष्ट, तार्किक और बुद्धिगम्य समाधान प्राप्त होता है।
विज्ञान एवं दर्शन का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है। प्रकृति के रहस्यों की खोज में निरन्तर लगा विज्ञान कहीं न कहीं व्यवहार से भी जुड़ा रहता है। यही कारण कि विज्ञान आज सर्वत्र लोकप्रिय है। किन्तु विज्ञान का सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है, यह आत्मा के विकास एवं उसको शाश्वत सुख प्रदान करने में कोई मदद नहीं करता। विज्ञान बहिर्मुख है और दर्शन अध्यात्म प्रवण। विज्ञान वस्तु जगत को परिवर्तित करने का साधन देता है और दर्शन ऐसी अन्तर्दृष्टि जिससे मन को शान्ति मिले।
__इस प्रकार एक मौलिक भेद के होते हुए भी विज्ञान और दर्शन अपने परम्परागत रूपों में निकट सम्बन्धी रहे हैं। समग्र विश्व के स्वरूप की जिज्ञासा दोनों में समान * भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डोलाजी, दिल्ली में १४ मई २००३ को
पठित आलेखा ** गणित विभाग, होल्कर ओटोनोमस साईंस कालेज, इन्दौर - ४५२ ०१७
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