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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
संयमहीनं च तपो यश्चरति निरर्थकं तस्य।।) चरित्रहीन ज्ञान, दर्शन विहीन वेष तथा संयमहीन तपस्या निरर्थक है।
हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान का महत्त्व है, किन्तु सम्यक् चारित्र का विशेष महत्त्व है। सम्यक् चारित्र के आधार पर हमारे व्यवहारों का मूल्याङ्कन होता है। सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत जिन पाँच महाव्रतों का उल्लेख किया गया है, उनमें अहिंसा को विशेष महत्त्व दिया गया है।
वर्तमान समय में देश की स्थिति के सन्दर्भ में जैन-दर्शन का यह व्यवहारपक्ष अधिक उपयोगी है। आज ज्ञान, वैदष्य आदि से हमारा क्या उपकार हो रहा है? भारत का चरित्र धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है। यदि उसकी रक्षा नहीं होगी, तब श्रुत आदि से अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी। वर्तमान समय में आवश्यकता यह है कि जैन-दर्शन के इस व्यावहारिक पक्ष का विशेष उन्मीलन किया जाय और समाज में व्याप्त दूषणों को दूर किया जाय। व्रतों का स्वरूप निर्मल रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिन भावनाओं से वे तत्त्व ओतप्रोत हैं, उन्हीं के आधार पर व्यवस्था होनी चाहिए और समाज को निर्देश भी मिलना चाहिए। जो आदर्श मुनिजनों द्वारा प्रस्तुत किये जायँ, वे यथासम्भव गृहस्थों द्वारा भी पालित हों। दोनों के आचरणों में बहुत अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए। यह समाज तथा देश के उत्थान के लिए आवश्यक है। इसको ध्यान में रखकर जैनदर्शन ने आचारमीमांसा प्रस्तुत की है।
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