________________
शीलतासे वैद्य लोग भी दंग हो जाते थे। वृद्धावस्था में कई बार आपको नींद आती थी तब आप कहते थे 'हे जीव। तूं किस की प्रतीक्षा कर रहा है, नींद की? कितना मूढ़ हो गया है, चैतन्यमय होकर भी जड़ सदृश-दशा को प्राप्त हुआ। निद्रा भी एक आत्मगुण विनाशक-कर्म की पैदायश है, यह बात क्यों भूल जाता है? 'स्वस्थ हो जा' और वह वैराग्यमय वृद्ध देह में विराजमान जागृतआत्मा फिरसे स्वाध्याय एवं ध्यानमें लीन हो जाता था। वैराग्य से भरा आपका आत्मदल उत्तरोतर नि:शंक हो रहा था। क्रियाभिलाष : शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए शुद्ध संयम का पालन तीक्ष्णधार-तलवार पर नृत्य करने से भी अधिक दुष्कर है। संपूर्ण क्रियाओं का शास्त्रोक्त पालन मुश्किल होने पर भी एक आराधक आत्मा में क्रियाभिलाष होना परम जरूरी है। सम्यक् क्रियाओं को कोसनेवाले सच्चे अर्थ में जैन नहीं हो सकते तो फिर आचार्य कैसे कहा जायेगा? आप में अपार क्रियानुराग भरा पड़ा था। इसलिये तो आप जिंदगी में पोरिसि पढ़ाने जैसी छोटी-छोटी क्रियाओं को भी कभी भूलते नहीं थे। लेकिन दैहिक एवं अन्य कारणों से जो क्रिया आप ठीक ढंग से नहीं कर पाते थे उनका अफसोस आपको रोमरोम में भरा पड़ा था। कोई अच्छे क्रियानिष्ठ को देखते ही 'आपके हृदय में आनंद सागर उमड़ता था।'
वृद्धावस्था में एक दिन आपके पात्रमें मवखी उड़कर गिर पड़ी और दुर्दैव से मर गई, आचार्यवर्य ने वहाँ ही प्रायश्चित करना शुरू कर दिया और प्रायश्चित्त करने के आद ही आपने गोचरी ग्रहण की।
यह था आपका असीम 'क्रियाभिलाष'। गुणानुराग : संयम-जीवन में क्रिया-कलाप की दृष्टि से भी अधिक महत्त्व है हृदय का। आप क्रियाभिलाषी होने पर भी गुणानुरागी थे। ‘गुणानुराग' के बारे में शास्त्रकार ने कहा है " गुणानुरागी महात्माओं को तीर्थंकर एवं गणधर पदवी भी दुर्लभ नहीं है"। क्षणभर के लिये हमें शास्त्रकथन में कदाचित् अत्युक्ति लगे लेकिन "गुणानुराग' की साधना का यथोचित विचार करने पर हमारा भ्रम नष्ट हो जाता है। 'गुणानुराग' का अर्थ केवल 'प्रशंसा' तक सीमित नहीं है। केवल स्वजन एवं अनुकूल जनों की प्रशंसा तक ही परिमित नहीं है, लेकिन अमित जीव समुदाय में से किसी में लेश गण दिखाई देने पर हृदय का विकस्वर हो जाना सच्चा गुणानुराग है। ‘गुणानुरागी' मिथ्या प्रशंसक नहीं हो सकता और न हो सकता है सूक्ष्मातिसूक्ष्म गुण का द्वेषी। ज्ञान का अजीर्ण अभिमान है। गुणानुरागकी जनेता है नितांत निरभिमानता। अतएव यह नि:संशय सिद्ध हो जाता है कि गुणानुरागी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org