________________
३० भवन के सभागार में प्रवचन चल रहा था। प्रवचन का विषय था “ साधर्मिक भक्ति '' जिसमें सप्तस की प्रभाविक व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने- निंदा और वह भी साधार्मिक भक्ति की निंदा-की पुरजोर चर्चा की। व्याख्यान पूरा भी नहीं हुआ कि कल के व्यक्ति की आंखों से अश्रुधारा बह चली और पश्चाताप करते हए क्षमा याचना की। अजीबोगरीब दृश्य उपस्थित हो गया।
आचार्यश्री ने अपने इस सारगर्भित प्रवचन में स्वामी वात्सल्य की महत्ता बताते हए कहा था कि न जाने कब कौन सा दाना किस पुण्यात्मा को मिल जाए और वह आत्मा कल्याणकारी हो जाए। भक्ति के कायल आचार्यश्री : छोटा हो या बड़ा, धनी हो या गरीब, सामाजिक परिभाषा के प्रचलित परिवेश में कुछ हो आचार्यश्री लब्धिसूरि सदैव गुणों की, विचारों की, सहृदयता की, भावना की, सद्भक्ति की बिना किसी भेदभाव के सम्मान करते थे, अनुमोदना करते थे। पालीताणा में एक बार आरीसा भवन में स्व० मनरूपमल जी दूगड़ और मांगीलालजी (दुर्ग) ने अपने श्रद्धापुंज में परिवारजनों के बीच पधारकर चरण रज से पावन करने का निवेदन किया। निवेदन स्वीकार हुआ। आचार्यश्री अपने समस्त शिष्य परिवार के साथ पाटणवाली धर्मशाला में पधारे और चरण स्पर्श से पावन किया। हजारों हजार कानों ने मंगलाचरण से तृप्ति पाई। गुरु पूजन एवं संघ पूजन का दृश्य भक्ति के कायल आचार्यश्री के विशाल गुणवत्ता का गान कर रहा था। जैन रत्न व्याख्या वाचस्पति : पूज्यश्री विजयलब्धि सूरीश्वर जी म० के पंजाब से धर्म प्रभावना की सफलतम उपलब्धियों से ईडर पधारने पर सूरि भगवंत कमलसूरीश्वर जी म० की आज्ञा व निश्रा में जैन रत्न व्याख्यान वाचस्पति से श्री संघ ने सम्मानित किया। इस प्रसंग पर मुनिश्री मानविजय जी ने जोरदार वक्तव्य दिया तथा पूज्यश्री ने जो आभार प्रदर्शित किया अक्षरश: यहां प्रस्तुत है।
मुनि लब्धिविजय जी। आज श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघ ने जो मानपत्र दिया है सो इन्होंने गुणानुराग से यह काम करके अपनी फर्ज अदा की है। योग्य श्रावकों का कर्तव्य है कि हमेशा योग्य गुणों को देख भविष्य में उन्नति कारण बनाने के लिए उसकी मदद करें। जिस काम में योग्य व्यक्ति की कदर नहीं होती वह काम कभी उन्नति के शिखर पर चढ़ नहीं सकती है। इसलिए यहां उपस्थित श्री संघ का कर्तव्य अति श्रेष्ठ है। परन्तु पद को लेने वाला पद को प्राप्त करके पदानुकूल कार्य करता रहे तभी पद प्रदाताओं का परिश्रम सफल हो सकता है। इसलिये जैन रत्न व्या० वा० के पदारुढ़ मुनि लब्धिविजय जी, मैं तुमको यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org