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पशु के शरीर में जितने बाल होते हैं उतने हजारों वर्ष तक पशुवध करने वाले को नरक का दुःख उठाना पड़ता है।
इन श्लोकों से पता चलता है कि जैन धर्म में तो छोटे से छोटे जीवों का स्वरूप वीतराग परमात्मा ने बहुत सहज ही बताया है, पर दूसरे धर्मों में भी दया धर्म के पालन के लिए कहा गया है। कोई भी धर्म दया का विरोधी नहीं है। जिस शास्त्र में दया का विधान नहीं वह शास्त्र नहीं अपितु भव यात्रा को बढ़ाने वाला भवशास्त्र है।
कोई भी जीव मरना नहीं चाहता भले ही वह किसी भी योनि में क्यों न उत्पन्न हुआ हो।
मृत्यु का भय तथा जीने की आकांक्षा स्वर्ग में रहने वाले इन्द्र को तथा विष्टा में रहने वाले कीड़े को एक समान ही होता है। प्रत्येक धर्मशास्त्रों में कहे हुए श्लोकों पर क्षण भर भी विचार किया जाय तो अनायास ही हजारों जीवों को अभयदान मिल सकता है।
क्षणिक आमोद-प्रमोद के लिए जो निरपराधी जीव-जंतुओं की हिंसा करता है वह शारीरिक भयंकर दर्दों से पीड़ित होता है और घोर पापी बनकर रौरव नरकादि असह्य पीड़ाओं को भोगने की तैयारी करता है। जीवों के प्राण लेने वाला, प्राण लिवाने वाला, खाने वाला, पकाने वाला, बेचने वाला और लाने वाला ये सभी समान पाप के भागीदारी होते हैं।
सुख पुण्य वृक्ष के मनोहर पुष्प से निकला फल है और दुःख पाप वृक्ष के दुर्गंधमय पुष्पों से निकला कटुक फल। दीर्घ दृष्टि से विचार किया जाय तो सहज ही जाना जा सकेगा कि सुखी होने के लिए पुण्य का ही उपार्जन करना चाहिए। आत्मा की सच्ची पहचान होने के बाद उसका क्रमिक विकास और उसमें रही ज्योति की प्राप्ति के लिए सहज प्रयास किया जाना चाहिए। प्रत्येक प्राणी सुख की चाहना करता है, पापाचरण में लिप्त भी स्वर्ग की सुखद् शैय्या की इच्छा रखता है किन्तु भावना मात्र से सुख नहीं मिल सकता । वास्तविक सुख सही साधन के बिना कदापि संभव नहीं । सच्चा सुख तो वही है न जो मिलने के बाद वापस न जाय ? सुख में दुःख का लेशमात्र अंश न हो ? सुख के बाद दुःख न आए, ऐसे सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए हे चेतन, तू विचार कर | ईर्ष्या व द्वेष शत्रु : द्वेष और ईर्ष्या अत्यंत कट्टर शत्रु हैं। अज्ञानियों को इन शत्रुओं की दोस्ती अच्छी लगती है, प्रिय लगती है परन्तु इन दुष्ट शत्रुओं का आक्रमण कब होगा इसका उन्हें भान भी नहीं हो पाता और कितना अध: पतन कर जाता है कि सब कुछ गंवाने के बाद वे आभास मात्र कर पाते हैं।
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