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रहो समकित रस ओ नित्य वही, वासुपूज्य ॥५॥
(१७)
श्री शान्ति जिन स्तवन आज शान्तिजिन दर्शन करके, यह हमने पुकारा है ; दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो, ऐ मायावाले !
धार्मिक भाव हमारा है, जहां हमारा राज आतम है, और ज्ञान सतारा है, जहां हमारा चरण-करण हो, भव से झट निस्तारा है, उस धरम पर प्रेम बढाना, अत्याचार से न्यारा है, दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो, ऐ मायावाले !
धार्मिक भाव हमारा है, ... आज ॥१॥ मीला भाग्य से जिनजी प्यारा, भक्ति में हो मस्ताना, राग द्वेष को छोडो जल्दी, नहिं फिर पडे पस्ताना, आत्म-कमल में लब्धि प्यारा, मीले मुक्ति मिनारा हो, दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो, अय मायावाले ! .. धार्मिक भाव हमारा है,.. आज ॥२॥
(१८)
श्री शान्तिजिन स्तवन ऎ शान्ति ध्यान न तेरा, जब तक ही मैं जपूंगा ; ये राज जिंदगी का, तब तक मैं नहीं लहूंगा , रुलता हुआ ये जीवन, नहीं तत्त्वज्ञान पाया ;
अनजान बन इसीको, सूं ही है मैं गंवाया ; मैं मोह की नींद सोया, देदार न तेरा जोया ॥१॥
ऐसी दशा से मुझ को, होना पड़ा दिवाना,
ऐ सिर के ताज मेरे, वाणी सुना जगाना ; यह गुण प्रभुजी तेरा, कभी भी नहीं भूलुंगा ॥२॥
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