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विषय की कैसे कटे मोरी चाह, करती यह फनाह पांच इन्द्रियों पोषे इसको, मन है इसका नाह
शब्द रूप रस गंध स्पर्श की, माया बड़ी है अगाह.. २ छाई अनादि की यही मूरखता, वो यही हृदय में दाह.. ३ पिंड नियुक्ति देखत जब हूं, विकट साधु का राह.. ४ नरक निगोद के दुःख सागर में, कर रहा अवगाह.. ५ चरण करण हीन मैं दुःख पावुं मिलत नहि शिवलाह.. ६ आत्म- कमल में दर्श सुहाये, लब्धि होगी वाह वाह.. ७
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