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धन्य-धन्य वो जीवन है, जिनराज का भजन है, जहां सदैव जारी, मुक्ति तरफ गमन है ॥४॥
आत्म-कमल में मेरे, सुगुण बसो ही तेरे, लब्धिसूरि की वनती, अवधारो नाथ मेरे ।।५।।
श्री वासुपूज्य जिन स्तवन वासुपूज्य जिणंद सुखकार सही, तेरा नाम कदापि मैं भूलुं नहीं,
साखी तूं प्रभु सिरताज मेरा, तेरे चरण में आ पड़ा, शिव मिले सेवा करणसे, उपकार मे तेरा बड़ा, जयानंद रहो मेरे मनमें बसी, वासुपूज्य ॥१॥
साखी चंपा पुरी मैदान में, देशना खूब दइ प्रभु, अणसण करी आप मुक्ति पहोंचे, उपकार अ सच्चा विभु रहे अन्त सुधी उपकार करी, वासुपूज्य ॥२॥
साखी उस वख्त से मुज को प्रभु, मिलता शुभ संयोग जो, वाणी परिणत भाव से, हटता कर्म का रोग तो, ओ बात रही मुज दिल को दही, वासुपूज्य ॥३॥
साखी तेरा शरण अब ही लिया, भवपार होने के लिए, शुभ भाव से फल मिले, तुम ध्यान में चित्त को दिये; ऐसी भक्ति मेरे दिल बैठ रही, वासुपूज्य ॥४॥
साखी आत्म-कमल मेरा प्रभु, विकसित तेरे ध्यान से ; लब्धिसूरि छूटो नहि, मुक्ति लगी ओ जान से ;
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