Book Title: Sramana 2000 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 116
________________ ११० परघट में दीवाली है मेरे घट में अंधेरा, भव-भव में खूब भटकी, मेरे होश उड़ गये, गुण गण चले गये, मेरे सुख दिन चले गये, दुर्गति की ठोकरो ने, किया हाल क्या मेरा ..१ मैं उसको ढूंढता हूँ, जो सदा आबाद है, मगर नसीब टेड़ा हुआ, जीवन उजाड़ है, सोते ही सोते जाय, दिन रात ए मेरा ..२ हमने तो मुनियों से, सुने थे ये सुबयान, किस्मत की लकीरों को, मिटाता है शुभ-ध्यान, कर्मों के हेतु से है, चेतन रहा घेरा ..३ अंतरा इससे गति चारका, लगा हुआ बाजार, नारकी निगोद से, जीवन रहा हार, शैयतानियत के सब बसे, लूटत है लुटेरा, मन चाहता है दिल में, मैं ज्योति जगा दूं, जिनवर की शरण लेके, करी धर्म का डेरा, तब उनको सुनाऊं मैं मेरे गम को उड़ाना, मुक्ति के सकल सुख ने, मेरे दिल को लुभाया, मेरे जिगर के कमरे में, ज्योति को जगाया ..४ छोटी सी मेरी अर्ज सुनो अय जिनराजा, सुनो अय जिनराजा, सुनो अय जिनराजा, एक बार मेरे मन रूप मन्दिर में तूं आजा, मंदिर में तूं आ जा, अय जिनराजा, लब्धि कहे है सूना, आत्म-कमल मेरा ..५ . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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