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३४ संस्कृति की इन्हीं तीनों धाराओं की सीमा, काल, गति, समय और इतिहास इतना सनिकट है, उनके विचारों में इतनी गहन समीपता है, उनके भावों में इतना सामीप्य है कि हर संस्कृति पुष्प का रंग-रूप सौरभ एवं सुषमा एक दूसरे को अनुप्राणित करती रही है और यही हमारे राष्ट्र की आत्मा का स्वस्थ स्वरूप है। यही हमारी राष्ट्रीय एकता का मूलाधार है एक सुदृढ़ सेतुबंध। इसी त्रिवेणी संगम पर भारत की आत्मा का स्वस्थ चिंतन हमें देखने को मिलता है।
हमारी संस्कृति के ये प्रबल स्तंभ, ये अनुपम सर्ग, ये अध्याय ज्योति स्तंभ रहे हैं। आलोक स्तंभ रहे हैं। आक्रान्तों ने, विदेशी आक्रमणों ने, मूर्ति ध्वंसकों ने न जाने कितने कितने बार हमारी संस्कृति पर गहरा प्रहार किया।.मूर्ति की भंजना की गई, धर्मग्रंथ जला डाले गए, बलात् धर्म पर आघात किया गया, मगर हमारा संस्कृति का दीप अक्षुण जलता रहा।
सहयोग-शांति और मैत्री, यहीं से हमारे धर्म का उद्भव होता है और विकास भी। हमारी चिन्तना को गति मिली, मानवीय कर्म का विकास हुआ और साहित्य को मिली हजारों वीथिकाएँ, हजारों उपवन, हजारों श्रद्धा सुमन, भावों के नए-नए स्तवन।
श्रद्धा-भक्ति और दर्शन के क्षेत्र अलग-अलग होते हुए भी जो चन्दनीय शीतलता हमें अध्यात्म के इस परिजात क्षेत्र में मिलती है ऐसा अद्भुत समन्वय हमें संसार के किसी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और साहित्य के धरातल पर दर्शनीय नहीं होती। संस्कृति के इन्हीं कछारों के आस-पास भारतीय वाङ्मय पूरी सुषमा के साथ पुष्पित हुआ और जन-जीवन को संस्कार एवं संस्कृति से सनातन काल से दीक्षित करता रहा।
जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के मनीषियों ने, साधकों ने, प्रज्ञा-पुत्रों ने जो गहन अनुभूतियां प्राप्त की उनमें अपनी-अपनी विशिष्टता थी और उसका मूल कारण था साधना का अपना-अपना क्षेत्र-साधना का अपना-अपना परिवेश, साधना के उदात्त और सर्वोच्च सोपानों में वे मूल तत्त्व के सनिकट अवश्य दिखाई देते हैं लेकिन अन्य स्थलों में उनकी अनुभूतियों में अति सनिकटता न भी रही हो तो भी अत्यन्त दूरी भी नहीं थी।
कुछ अनुभूतियों पर विचार-विमर्श भी हुआ, शास्त्रार्थन भी हुए और कुछ पर अध्यात्म चिन्तन का अविभाज्य प्रभाव भी दृष्टिगोचर हुआ। युगानुरूप
१. प्राकृत २. पाली ३. और संस्कृत भावों और विचारों की मौका बनी इन्हीं के शब्दों ने हमारी संस्कृति को ..
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