Book Title: Sramana 2000 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 43
________________ है। सूरि जी के स्तवनों के ये शाश्वत भाव भारतीय वाङ्मय के आदर्श एवं अनादि भाव हैं। वंदन आवश्यक है। वंदना के उपसर्ग में तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन हुआ है, क्योंकि तीर्थंकर देव हैं। मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार जिससे सद्गुरु के प्रति भक्ति व बहुमान प्रकट हो, वह वंदन है। वंदना के इस सोपान में महावीर स्वामी का जन्म, आदिनाथ जिन स्तुति, नेमिनाथ जिन स्तुति, पार्श्वनाथ जिन स्तुति, सिद्धचक्र स्तुति, सिद्धगिरि चैत्य दर्शन, सिद्धचक्र चैत्य वंदन के माध्यम से नाम की महिमा का विशद् वर्णन किया गया है। नाम, जप, जाप, पुरश्चरण, वैदिक धर्म में, जैन धर्म में और बौद्ध त्रिपिटकों में अध्यात्म की सर्वोच्चता पर पहुँचने का श्रेष्ठ सोपान निरूपित किया गया है। वास्तव में नाम की महिमा वही पुरुष जान सकता है जिसका मन निरन्तर सिद्ध पुरुषों एवं भगवन्नाम में संलग्न रहता है। नाम की प्रिय एवं मधुर स्मृति से जिसके क्षण-क्षण में रोमांच एवं अश्रुपात होते हैं जो प्रतिफल नाम के साथ आत्मसात् होकर जीवन का एक नया युगपत् शुरू करते हैं ऐसे ही सिद्ध पुरुषों के इन स्तवनों से एक ऐसी खुशबू, एक अलौकिक अध्यात्म गंध और मलयजी हवा का स्पर्श मिलेगा जिससे उनके जीवन सर्गों में पवित्रता का निरन्तर विकास होता रहेगा। दृष्टव्य है सूरिजी के स्तवनों की रसभीनी साहित्यिक महक जिससे युग की आत्मा को पवित्रता का बोध होआत्म कमल में वीर प्रभु ध्याना, घड़ी घड़ी, पल पल, जिन गुण गाना। लब्धि सूरि हो भव से पारा, विश्व वत्सल भव तारण हारा।। आत्मा के विमल प्रकाश में खिले हए अरविंद का सौरभ वही पा सकता है जिनकी अंजुरियों में श्रद्धा है, भक्ति है और है सम्यकता। दुख जलधि में डूबे जग को, पार करण प्रभु जहाज। कोई महान शिव ब्रह्म उपासी, हम सिरताज जिनराज।। भगवन्नाम से पापों का नाश होता है, ज्ञान की सम्यकता का सोपान खुल जाता है और इसी से परमपद की प्राप्ति होती है। श्रद्धा, विश्वास और भक्ति की त्रिपथगा पर जिन आचार्यों ने नाम जप की उपासना की, ते दु:ख संसार के भवसागर से पार हो गए। भक्ति और भजन के जहाज ने उन्हें पार उतारा चाहे वह विराट शिव हो, ब्रह्मा हो, वीतराग हो, बुद्ध हो या महावीर। गीता के दशम अध्याय में कृष्ण ने कहा है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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