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आचार्यश्री विजयलब्धिसूरि जी महाराज - एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व
___डा० गंगाचरण त्रिपाठी जीवन की अन्तः सलिसा के अवगाहन, मन्थन एवं समय और समाज के निरीक्षण-परीक्षण से प्राप्त निष्कर्ष सिमट-सिमट कर जब परस्पर पूर्वापर अथवा सापेक्षय सम्बन्ध स्थापित करने लगते हैं तो समाज, देश या जातिविशेष की चिन्तन-सरणि सार्थक हो जाती है। निरन्तरता का रूप धारण करते समय इसमें आरोह-अवरोह, ऋजुता-वक्रता, कोमलता- कठोरता आदि के भी अवसर आते हैं और यदि ये अवसर वाद का रूप धारण कर लेते हैं तो तत्व-बोध की प्रेरणा मिलती है। तत्व-बोध की यह स्थिति जब परम्परा के रूप में बदल जाती है तो उसे संस्कृति की संज्ञा से संबोधित किया जाने लगता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि किसी देश या जातिविशेष की संस्कृति किसी क्षणिक घटना, विचारणा, भावना अथवा चिन्तन का आकस्मिक अथवा अप्रत्याशित परिणाम न होकर व्यक्ति या समाज द्वारा स्वीकृत सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का परिपाक या सच्चिदानंद की खोज की दिशा में किये गये प्रयास का इतिहास है। भारतीय संस्कृति को भी इस तथ्य का अपवाद नहीं कहा जा सकता।
___भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में में आज हमारी जो धारणा है अथवा भारतीय संस्कृति की विशेषताओं के रूप में हम जिन सद्गुणों की गणना करते हैं वे आमुष्मिक या आमुष्यमाण की सीमा में नहीं बांधे जा सकते। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस देश के संस्कृति की तुलना नदी के डेल्टा के साथ की है। इसका कारण यह है कि इसके निर्माण में यक्ष, किन्नर, असुर, गन्धर्व, विद्याधर, वार्त्य, आर्य, अनार्य आदि अनेक जातियों और सम्यताओं के तत्वों के साथ-साथ हूण, कुश, कनिष्क आदि के चिन्तन ने भी योग दिया है। यूनानी, यूरोपीय और इस्लामिक संस्कृति से भी इसने बहुत कुछ ग्रहण किया है। अत: आज भारतीय संस्कृति के रूप में हमें जो कुछ प्राप्त है उसमें वैदिक ऋषियों के प्रणव नाद की गुंजार, बौद्धानुयियों के निर्वाण के भाव, जैन साधकों के अर्हन्तारम् के अनुनाद के अतिरिक्त वट-वृक्षों की विशालता, कमल-पुष्पों की स्निग्धता, जिन शासन की कोमल कारुणिकता या स्नेहिल सात्विकता तथा वन्य जीवन की समन्वयशीलता के भी तत्व विद्यमान हैं। इस संस्कृति की इसी व्यापकता के कारण इसमें यदि “तमसो मा ज्योर्तिगमय", "असतो मा सद्गमय'' मृत्योर्मा अमृत गमय', की कामना की जाती है तो आत्मा, शरीर और पुद्गल सम्बन्धिनी
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