________________
४४ सूक्ष्म चिन्तना के माध्यम से सहयोग, शान्ति और मैत्री की स्थिति उत्पन्न करके नर को नारायण बनाने के उपक्रम में मनुष्यता का सन्देश देते हुए “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्', आशीर्वाद भी दिया जाता है।
धर्म अपने मूल रूप में व्यक्ति को साथ जोड़ता है, मनुष्य को ईश्वर के साथ स्थापित करने का मार्ग दिखाता है, सत्य और नैतिकता के माध्यम से स्वार्थ त्याग करने की प्रेरणा देता है किन्तु जब यह किसी वाद या विशेष के चक्र में पड़ जाता है तो इसके उद्देश्य सीमित हो जाते हैं। इस स्थिति में यह अपने वाद अथवा विशेषण रहित स्वरूप की भांति जन-मनरंजक अथवा लोकोपकारी नहीं रह जाता। यही कारण है कि भारत में धर्म को कभी किसी घेरे में घेरने का प्रयास न करके जनता द्वारा स्वीकृत धर्म के रूप को आच्छादित करने वाले बाह्य-विधानों को हटाने का ही उपक्रम किया जाता रहा है और ऊपर से हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, आर्य, सनातन आदि नाम देने के बावजूद अन्दर से सभी ने धर्म के ऐसे तत्वों-सूक्ष्म तत्वों को स्वीकारा जो देश की भावनात्मक एकता में सहायक होते हुए अनेकता में एकता की स्थापना करने में सहायक हो सके।
कवीन्द्र रवीन्द्र ने भारत को महामानवों का महार्णव कहा है। इससे यह ध्वनित होती है कि जिस प्रकार यह निश्चित नहीं है कि समुद्र में कब, कहां, कौन सा रत्न उपलब्ध हो जायेगा और जितने रत्न उपलब्ध हो चुके हैं उनसे अधिक रत्न अब उपलब्ध न होंगे उसी भांति इस देश में कब, कहां, किस प्रदेश, जाति-समाज, धर्म या परिवार में कैसा नर-रत्न उत्पन्न हो चुका है या होगा इसकी कोई सीमा नहीं है। नर-रत्नों और जन-हित के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले महापुरुषों की दृष्टि से भारत भाग्यशाली रहा है। केवल अतीत में ही नहीं वरन् वर्तमान में भी इस देश में ऐसे महामानव हो चुके हैं और अभी भी हैं जो अपनी साधना, उपासना, चिन्तना, कल्पना, सर्जना के साथ-साथ शूरता, वीरता, उदारता, महानता के अतिरिक्त अपनी दया, क्षमा, दृढ़ता, विद्वत्ता आदि की दृष्टि से अप्रतिम माने जाते हैं।
आचार्यश्री विजयलब्धि सूरि जी महाराज का नाम सत्वान्वेषिणी भारतीय मनीषाओं के मध्य बड़े आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य श्री न केवल एक मनस्वी संत ही थे वरन् प्रतिपाद्य विषय की अतल गहराई में पैठकर उसके सारभूत तत्व को निकालने तथा उसे सुग्राह्य, सुपाच्य और सुबोध शैली में प्रकट करने की उनमें अद्भुत क्षमता भी थी। ५९ वर्षों तक जिन शासन की निरन्तर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org