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६१ के दर्शन कर आएं वे अभी अस्वस्थ भी हैं। आचार्यश्री के दर्शन की इच्छा मैं भी रोक न सका। शाम को चलने का कार्यक्रम बनाकर मैं अपने कार्यों में व्यस्त हो गया। शाम तक मणि जी ने आचार्यश्री के विराजमान होने की जगह की जानकारी प्राप्त कर ली थी। किन्तु उस दिन हम नहीं जा सके। दूसरे दिन सुबह कार्यक्रम तय हुआ और हम यथासमय वहां पहुंचे। एक ऊंचे पाट पर एक महात्मा लेटे हुए थे आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी। मणि जी ने एक महाराज श्री जयंतविजय जी (जिनका नाम बाद में मालूम हुआ) को वंदन किया और उनसे मेरा परिचय कराया। महाराजश्री के साथ हम आचार्यश्री के पास आये। मणि जी ने विधिवत् प्रणाम किया और उनका चरण स्पर्श कर पैर दबाने लगे। महात्माश्री जागृत से हुए। चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई उन्हें पहचानते हुए कहा “ अरे रावल है न, मांगी लाल का लड़का, कब आया, कैसे हैं तुम्हारे पिताजी, दादाजी," एक ही सांस में वे पूछ गए थे। मेरे आश्वर्य का ठिकाना नहीं था कि न देखते हुए भी इन्होंने मणि जी को कैसे पहचान लिया?' मैं बरबस पूछ ही गया " साहेब जी, न देखते हुए भी मात्र स्पर्श से इन्हें कैसे पहचान लिया जबकि इन्होंने अभी कुछ बोला तक नहीं और फिर आपको स्पर्श करने वालों की संख्या सीमित भी तो नहीं है।' मेरे प्रश्न पर आचार्यश्री चौंके और कहा “ इन हाथों ने मेरी बड़ी सेवा की है पालीताणा में साथ रहा है। यह शरारत भी खूब करता रहा है। इसने एक बार पालीताणा में मेरी उंगली पकड़कर सिद्धाचल जी की यात्रा की जिद् की थी. भक्तामर का पाठ सीखा था। इसीलिए मैं स्पर्श नहीं भूल पाया था। मेरी ऊपरी आंखें बंद हैं तो क्या हुआ अंतर चक्षु तो खुले हुए हैं जो इसे पहचानता है" मैं यह सब सुन मुग्ध था। फिर श्री जयंतविजय जी ने मेरा परिचय कराया तब आचार्यश्री से काफी देर तक चर्चा होती रही। मुझे और आश्वर्य तब हुआ जब उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यकलापों, भारतीय कविताओं पर मुझसे विशद् चर्चा की। मैं काफी आनन्दित हुआ। चलते समय सज्झायमाला की एक पुस्तक मंगाकर हस्ताक्षर और धर्म लाभ लिखकर उन्होंने दिया। मैं वह क्षण कभी नहीं भूल सकता। - मुझे गौरव है कि महान् संत का मैं आशीर्वाद प्राप्त कर सका हूँ।
मोहनलाल भट्ट प्रधानमंत्री राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा
साहित्य उपकारी भक्ति की रसात्मक वाग्धारा को पूज्य आचार्य लब्धिसूरि ने जन मानस के व्यापक धरातल पर अवतरित कर संगीत और माधुर्य से मंडित कर साहित्य को
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