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ज्ञान का बोध कराया। उपर्युक्त तीनों भाषाओं में शब्द-अर्थ-भाव की गहनता, उसकी विचारणालिपि, अर्थचिंतन, भाव, बोध, वाणी, सभी में एक साम्य सहजता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
न केवल भारतीय संस्कृति के विचार, उनके शब्दों की संरचना में, व्याकरण में, दर्शन में, सांख्य में, वेदान्त में, सभी में हमें एक ही विमल आत्मा का प्रकाश दिखाई देता है।
जैन संस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से मुखरित हुआ है। वहीं दूसरी ओर वेदों में लौकिकता का स्वर प्रस्फुटित हुआ है। कुछ समय पूर्व पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विज्ञों की यह धारणा थी कि वेद ही आगम और त्रिपिटक के मूल स्त्रोत हैं पर ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक अनुशीलन तथा मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने विज्ञों की धारणा में आमूल परिवर्तन कर दिया है कि आर्यों के आगमन के पूर्व भी भारत में जो संस्कृति थी वह पूर्ण रूप से विकसित थी, उसमें संस्कारों के उदात्त भाव थे, उसकी चिन्तता की गहराई अत्यन्त सूक्ष्म थी, उसमें संस्कारों का उत्कर्ष था- आर्यों के आगमन के पूर्व भारत असभ्य नहीं था। यहाँ पूर्ण रूप से संस्कृति का विकास हुआ था और वह संस्कृति थी- श्रमण संस्कृति।
श्रमण संस्कृति के प्रभाव से ही वैदिक परम्परा में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह जैसे महाव्रतों को स्वीकार किया गया है। आज जो वैदिक परम्परा में अहिंसा आदि का निरूपण चित्रण मिलता है वह जैन संस्कृति की देन है।
अत: जैन संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृति है। इन्हीं संस्कारों से इनके साहित्य, दर्शन और अध्यात्म की संरचना की गई। किसी भी संस्कृति या साहित्य का .मूल नाभिक केन्द्र मनुष्य ही रहा है। अत: जैनाचार्यों ने मानवीय पक्ष को उजागर किया है। मनुष्य के अंतरंग एवं बहिरंग विचारों को, चिंतन को और उसके दर्शन को नवल...न्यास देकर संस्कारित करना धर्म का काम है जिसके लिए साधकों ने पूरी निष्ठा एवं लगन से एक सनातनीय प्रक्रिया से गुजर कर पूरा किया है।
जैन साधकों ने मानवीय सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में आदमी के अन्दर की कल्मषता को झांका है और उसे दूर करने का त्रिपाीय सूत्र सम्यक दर्शन की भूमिका दी है। सम्यक ज्ञान का अवसर दिया है और चारित्र की सम्यकता देकर एक विमल प्रकाश दिया है। ___इन्हीं उपर्युक्त धारणाओं, विचारनाओं और साहित्यिक तथा सांस्कृतिक
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