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हित और मित शब्दों से कहता हूं कि तुम यह पद श्री संघ की तरफ हमेशा रखना। साधु मंडल में तथा सुश्रावक वर्ग में जिस प्रकार प्रेम भाव बढ़े ऐसे काम करना। मांसाहारी जीवों को मांसाहार से जिस प्रकार असीम परिश्रम उठाकर पंजाब देश में तथा मुल्तान आदि शहरों में हटाते रहे हो इसी प्रकार भविष्य में भी जहां तहां तुम्हारा विहार होवे वहां मांसाहार का खंडन करके शुद्ध दश धर्म का प्रचार करना। जैसी तुम्हारे में इस समय विद्या तथा शांति देखने में आती है इससे भी अधिक इस पदवी को प्राप्त कर रखना योग्य है। मतलब अपने जीवन को ज्ञान की उन्नति द्वारा पूर्ण शांतिमय बनाकर अधर्म मार्ग का निकंदन करने में तथा वीतराग के शासन की उन्नति करने में हमेशा दत्तचित्त रहना। परन्तु जहां पर धर्म से विरुद्ध अर्थात् अधर्म की पुष्टि होती होवे तथा धर्म शास्त्र से विरुद्ध कोई भी पुरुष प्ररूपणा करता हो, ऐसे स्थानों में शक्तिवान मनुष्यों को चुपकी पकड़ कर शांति को धारण कर बैठना अयोग्य है। क्योंकि शास्त्रकार भी लिखते हैं कि
धर्मध्वंसे कृपालोपे स्वसिद्धान्तार्थ-विप्लवे ।
अपृष्ठे नापि शक्ते न वक्तव्यं तनिषेधकम् ।। पूज्यश्री लधिसूर्ति जी : पूज्यश्री गुरुजी महाराज तथा पूज्य मुनिमंडल और अन्य सद्गृहस्थों :
“ मेरे गुरुवर्य ने आज मुझको जो उपदेश देकर कृतार्थ किया है इस बात का मैं अत्यन्त ऋणी हैं और साथ ही आप सर्व सज्जनों के समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि जो-जो बातें शासन की उन्नति के विषय में फरमाई हैं उन बातों को यथाशक्ति पालन करने के लिये जीवन पर्यन्त तत्पर रहूंगा।" प्रिय सज्जनों,
___"मुझको आज मानपत्र देने के लिए आप लोगों ने एक विराट सभा भरी है। जिसके अंदर बाहर के उत्साही लोग तथा नगर निवासी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री संघ और दिगंबर जैन व जैनेतर सभी समाज के मनुष्य प्रायः विद्यमान हैं।
सभा के प्रत्येक मनुष्य में असीम उत्साह प्रकाशमान हो रहा है शा. हेमचंद भाई छगनलाल तथा अन्य सद्गृहस्थों ने मेरे विषय में जिन शब्दों से स्तुति की है तथा मानपत्र में मेरे लिये जो शब्द लिखे गये हैं मैं अपने आपको उन बातों के योग्य नहीं देखता हूँ परन्तु जिस संघ रूप तीर्थ को श्री तीर्थंकर देव भी देशना के समय “नमो तित्थस्थ' कहकर नमस्कार करते थे वह तीर्थरूप श्री संघ मानपत्र में मिथ्या प्रशंसा भी नहीं कर सकता। दीर्घ विचार करने से मालूम होता है कि
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