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अशुभ है जिसे करते हुए अंत:करण में भय और संकोच का संचार होता है। मुनिश्री का प्रवचन सभासदों को झकझोर देने के लिए काफी था।
रायबहादुर बद्रीदास जी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए सूरि पुंगव से कहने लगे “ आपश्री के लघ शिष्य श्रीमद लब्धिविजय जी म. के व्याख्यान की शैली उनमें विविध सूक्ष्म विषयों को स्थूल और सरल रीति से समझाने की अजोड़ बुद्धि तथा सभा को प्रतिपादित विषय में सराबोर कर देने की चुम्बकीय शक्ति है। जिंदगी जब बदली : पंजाब के कसुर ग्राम में मुनिश्री का सं० १९६५ में चातुर्मास हुआ। निकटतम ही एक ग्राम है बधीयाना जहां जैनों की आबादी कम है, मुनिश्री का चातुर्मास के पूर्व यहां आगमन हुआ। लगातार प्रवचनों के क्रम में एक दिन एक सभा में एक मुस्लिम भाई उठ खड़ा हुआ “साहब, आज से मैं ज्आ नहीं खेलूंगा", "दूसरे ने कहा आज से मैं मांसाहार नहीं करूंगा", तीसरे ने कहा “अभी से मैंने मद्यपान त्याग दिया।" एक के बाद एक, सैंकड़ों लोग परिवर्तित हृदय से मुनिश्री द्वारा कराए गए आत्मानुभुति से पूज्यश्री के चरणों में निहाल हो रहे थे। सच्चे समाज सुधारक : मुनिश्री लब्धि विजय जी के मानव धर्म, शिक्षा, अहिंसा, विश्वशांति, सतसंग, सच्चा सुख आदिक विषयों के प्रवचनों को पंजाब
और दिल्ली के समाचार पत्रों ने महत्वपूर्ण स्थान दिया। अम्बाला के पंजाब कांफ्रेस में मुनिश्री के प्रवचन को सम्पादकीय टीप के साथ समाचार पत्रों ने प्रकाशित करते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी कि “ जैन महात्मा श्रीमान् लब्धिविजय जी महाराज आज के सच्चे समाज सुधाकर हैं।" दिल्ली में भव्य स्वागत : पंजाब की जनता को धर्म प्रवृत्ति में प्रगतिशील बनाने का सुकृत्य करते हुए मुनिश्री लब्धिविजय जी के दिल्ली प्रवेश पर अभूतपूर्व स्वागत हुआ। संवत् १९७० का वर्ष दिल्ली में मुनिश्री लब्धि विजय जी को पाकर गौरवान्वित हुआ। जैनेतर विद्वानों, राजनयिकों, अधिकारियों के अति आग्रह पर मुनिश्री के अनेक सार्वजनिक प्रवचन हुए। विद्वानों, पंडितों और विविध विषयों के विद्वानों का मुनि लब्धिविजय से विचारों का आदान प्रदान होता। गलाद हुए राजर्षि : मुनिश्री लब्धिविजय जी के विचारों से प्रभावित, जनजन में उनकी चर्चा को सुन लब्धिप्रतिष्ठ राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन मुनि श्री के दर्शनार्थ आ पहुंचे। किशनचंद जी चोपड़ा ने परस्पर परिचय कराया। टंडन जी मुनिश्री के विचारों विशेषकर भारतीय भाषाओं के विकास की उनकी ललक देख अत्यंत प्रभावित हुए। प्रथम भेंट में मुनिश्री ने टंडन जी को ग्यारह श्लोक
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