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वैराग्य की वृद्धि से उपचित होती जाती थी। फलत: आपका अंतिमकाल अनुपम सहनशीलता का प्रकाशक बन चुका था।
बाल्यवय-सहज-परवशता वृद्धावस्था में पुनः दृष्टिगोचर होती है। यह परवशता रोग का सहारा पाकर और भी विषम स्थिति निर्मित करती है। लेकिन सहनशील आचार्यवर्य के लिये यह स्थिति आनंदसागर की मधुर लहर थी। बीमारी के हमलों ने बार-बार आक्रमण करके आपके देह को अत्यंत शिथिल बनाया था, लेकिन सहनशील आचार्यवर्य का पवित्र आत्मदल प्रत्येक हमले से और भी पुष्ट बनता जाता था। अन्तिम दस-पन्द्रह वर्ष में तीन से भी अधिक देहांतक हमले आ गये थे। लेकिन बम्बई का वह रोग-आक्रमण अंतिम बन गया।
यह अंतिम रोगाक्रमण आचार्यवर्य की सहनशीलता से अत्यंत दर्शनीय बन चुका था। एक मास से भी अधिक बीमारी ने यह दर्शनीय पवित्र क्षण की मर्यादा विस्तृत की थी।
आपकी शुश्रूषा में रत साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका ही नहीं बल्कि कभी-कभी आनेवाले वैद्य और डॉक्टर भी आपकी सहनशीलता को देखते-देखते मुग्ध हो जाते थे। डॉक्टरों का निदान था की “ इतने असह्य दर्दवाला व्यक्ति केवल दैहिक शक्ति से जिंदा रहे यह कदापि संभव नहीं है।" आपका देहयंत्र वैद्यों के लिये आश्चर्यकारी प्रतीत होता था। वे लोग चाहते थे कि ऐसे महापुरुष की देह शुश्रूषा से अल्प आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाय तो भी बहुत कुछ है। यद्यपि आपकी इस अवस्था में विनायान्वित साधु एवं श्रावक रात-दिन का भेद भूलकर चौबीस घंटे उपस्थित रहते थे, लेकिन किसीने भी दुःख की आवाज तो क्या दुःख की रेखा भी मुँह पर शायद ही देखी होगी!
सेवा में उपस्थित महानुभावों ने यदि कुछ देखा भी था तो निश्चित कृतार्थता का आनंद। देह दु:ख की निर्भीकता का अत्यंत सूक्ष्म लेकिन मार्मिक स्मित !
अंतिम समय की आपकी ‘सहनशीलता' से मृत्यु-भय की निरर्थकता सिद्ध हो चुकी थी।
अंतिम-आराधना : सहनशील आचार्यवर्य अंतिम दिन तक चैतन्य थे। नमस्कार महामंत्ररत आचार्यवर्य के नमस्कार महामंत्र की धुन ने लालबाग उपाश्रय (बम्बई) में स्वर्गीय वातावरण का निर्माण कर दिया था। साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका इस महायज्ञ में उपस्थित रहते थे। जनता के प्रत्येक स्तर के लोग इस धुन में शामिल होते थे। लखपति भी वहाँ थे और सामान्य जन भी, संगीतविद् भी वहाँ उपस्थित थे और संगीत प्रेमी भी, बालक भी आते थे और बुड्ढे भी।
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