________________
श्रमण संस्कृति के गायक-लब्धिसूरि
रावलमल जैन “मणि" ____ भगवान् महावीर की विशाल श्रमण परम्परा में मूर्धन्य महाकवि,वात्सल्य मूर्ति, करुणा व समता के ज्योतिर्धर, शासन दिवाकर, पूज्यपाद श्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वर जी महान् जैनाचार्य एवं भारतीय संत के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आपकी वात्सल्यता, उदार मन एवं विशालता, सहज सरलता एवं हृदयस्पर्शी विद्वत्ता से हजारों हजार भक्तिवंत जनमानस प्रभावित था। लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी, डॉ. राधाकृष्णन, काका कालेलकर आदि राष्ट्रनेता भी इस महान् विभूति की गुणवत्ता के कायल थे। प्रवाहमान भक्ति, समता, संयम, आत्मकल्याण, परोपकारी, गुणानुराग और आनंद के शाश्वत संदेश को विश्व मानव के लिये सुलभ करने में सूरिदेव ने जो विशिष्ट गौरवशाली योगदान दिया है, वह अमूल्य धरोहर है।
यह महान् विभूति मूर्धन्य महाकवि एवं कविकुलकिरीट के रूप में प्रतिष्ठित है। अपनी काव्य एवं संगीतमयी सरसपद रचना के कारण उनका क्षेत्र धर्म-संप्रदाय और भाषा की सीमाओं को तोड़कर समस्त जन मानस में व्याप्त हो गया है। आज लब्धिसूरिदेव के गेय पदों को बड़े उल्लास के साथ भगवद् भक्ति में गाया जाता है। राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गप्त ने सरिदेव की काव्य साधना से प्रभावित होकर कहा था- "भक्ति की रसात्मक वाग्धारा को पूज्य आचार्य लब्धिसूरि ने जनमानस के व्यापक धरातल पर अवतरित कर संगीत और माधुर्य से मंडित कर साहित्य को उपकृत किया है।"
“ सूरिदेव लब्धि आचार्य की साधना को पढ़ा है, देखा है उन्हें स्वयं गाते हुए और उसमें गोते लगाते हुए। उन्होंने अपनी वैराग्यमयी ज्ञान साधना को सगुण भक्ति का रूप दिया, भक्ति को सरस काव्य का कलेवर प्रदान किया और काव्य को श्रुति मधुर संगीत के आवरण में सहृदय संवेदय बनाया " कवि रामधारी सिंह "दिनकर" की यह अभिव्यक्ति उस महात्मा के चरणों में विनम्र श्रद्धांजलि है।
श्रमण संस्कृति के अमर गायक श्री लब्धि सूरीश्वर जी को जैन संस्कृति के अध्येता एवं व्याख्याकार के रूप में जो प्रणम्यता प्राप्त हुई है वह उनकी सतत् साधना और समर्पित काव्य साधना का सही परिणाम है। भाव और भाषा की इकाई में वे सम्यकता को सम्बल बनाकर आगे बढ़ते रहे और इसी कारण उनका काव्य तत्त्व अत्यंत हृदयग्राही एवं सुलभ बन सका।
महान् विभूति की प्रवाहमान भक्ति, समता, संयम, आत्म कल्याण, परोपकार, सेवा, गुणानुराग, करुणा व समता और आनंद के शाश्वत स्त्रोतों का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org