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व्यक्तित्व कल्याणपरक है। आत्म आनंद का वह कौन सा तत्व है जिसके कारण आज अशांत ब्रम्ह सरोवर शांत और सत् चित् आनंदमय हो सके? यह एक यक्षप्रश्न युगीन संदर्भो के साथ हर युग में खड़ा हो जाता है और तब कपिलवस्तु के राजप्रासाद अनाकर्षक नजर आते हैं। यौवन की आंखों का अनुराग ढ़ल जाता है और निकल पड़ता है अपनी एकांकी यात्रा में कोई राजकुमार, कोई वर्धमान, कोई और--- वीतरागी बनने।
उसी आनंद उत्स की यात्राओं में साधना, तप और संयम के अनुष्ठानों को पूरा करता हुआ एक मानवीय चरित्र की विलक्षता में प्रतिष्ठित हो जाता हैजहाँ न तो कोई प्रश्न खड़ा हो सकता है और ही कोई उत्तर। न कोई तर्क है और न वितर्क - इसी साधकीय वृत्ति में सहजता से मिलता है अंदर का विमल प्रकाश, एक शरदीय ज्योत्सना, अक्षरों के सुंदर पुष्प और उनकी सुरभित मंगलमय क्यारी। आचार्य प्रवर के सौम्य दर्शन में, उनकी वाणी में, पद में, गीत में, अक्षर में, उपदेश में, उसी आत्मा के दर्शन होते हैं। शब्द की इस वासुदेव यात्रा का निरूपण यथा संदर्भ शिल्पित हुआ है। अध्यात्मपरक यात्राएं मानस के अंत:पृष्ठों को उजागर करती हैं। अनादि अनंत संसार चक्र में परिभ्रमण करती ऐसी आत्माओं को भवबंधन से पार ले जाने वाला पदम पराग इस ब्रम्ह सरोवर में शताब्दी पुष्प की तरह खिलता है, सुरभित होता है और अपना विमल पराग बिखेर कर दाहक जीवन को शीतल करता है।
आचार्यवर्य का प्रखर व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसी चिरंतन सत्य का आग्रह था। जीवन के चिंतन कक्ष में जीव जीवन से इतर मानवीय कल्याणपरक जो भावनाएं साधु-संतों की परम्परा में दिखाई देती हैं। उनका एक मात्र कारण है उनकी अपनी विशिष्टता, अलौकिकता जो स्वमेव हमें कथ्य की भूमिका के लिए प्रेरित करता है।
लब्धिसूरिदेव ने मानवीय सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में आदमी के अंदर की कल्मषता को झांका है और उसे दूर करने का त्रिपार्वीय सूत्र सम्यक् दर्शन की भूमिका दी है। सम्यक ज्ञान का अवसर दिया है और चारित्र की सम्यकता देकर एक विमल प्रकाश दिया है उनके पदों में स्तवनों के स्तावक हैं जिनमें भक्ति का सौरभ है और सत्चित् आनंद देने वाला सच्चिदानन्दीय सौरभ है। जैन संस्कृति और जैन संस्कारों के परिपथ में परिभ्रमण करते हुए ये स्तवन, ये स्तोत्र, ये भावों की सुरभित माला मनुष्य को मानवता के उदात्त सोपानों में पहुंचाने में सहायक हुए हैं। इन पदों में है लालित्य और है संगीत की आत्मा।
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