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पैर आदि निम्न अंगों को निःश्चंतन करता हुआ प्राणवायु ऊपर ऊपर जाता हुआ स्पष्ट दिखाई देता था । आखिर में नयनों को निस्पंदित निश्चेष्ट करके प्राणवायु देह से विदा हो गया। घड़ी ने ४-४० का समय दिखाया, आर्द एवं अधीर भक्तगणों ने आचार्यवर्य का बार-बार परीक्षण किया लेकिन प्रत्युत्तर देनेवाला, चैतन्यस्वामी गृहदेह को छोड़कर अन्यत्र चला गया था। पुष्पकोमल शिष्य ने वज्र हृदय बनकर आपके देह की परिस्थापनिका (अंतिम विधि) कर के श्रावकों के अधिकार में छोड़ दिया।
श्रावण षष्ठी का प्रभात ४.४० से ही उदित हो गया था। समाचार मिलते ही गली-गली, उपनगर - उपनगर एवं देश - देश जागृत हो गया। लालबाग- बम्बई का उपाश्रय सात बजने के पहले मानव समुद्र बन गया। आपके मृतदेह को देखनेवाले समझाने पर भी मानना नहीं चाहते थे कि उनके सामने अब आचार्यवर्य का निश्चेष्ट देह पिंड ही अवशिष्ट रहा है। लेकिन उन लोगों को भी मन को समझाना पड़ता था और क्रूर आघात को कबूल करना पडता था।
शासन के महारथी की श्मशान यात्रा कैसी थी वह लिखने की न जरूरत है, न पढ़ने की। महान् प्रभावक आचार्यवर्य के कार्य से हम स्वाभाविक ही समझ सकते हैं कि आपकी श्मशान यात्रा कैसी होनी चाहिये ।
श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन बम्बई की सामान्य जनता को भ्रम पैदा हुआ था कि आज कोई बड़ा प्रधान आया है। लेकिन अत्यंत भव्य जूलुस की बीच में जब आचार्यवर्य के पुनीत देह को देखते थे तब नत् मस्तक हो जाते थे। चैतन्यशून्य देह भी अंतिम काल की महासमाधि के दृश्य को उद्घोषित करता हुआ हजारों दर्शनार्थियों के हृदय में नव आंदोलन पैदा करता था।
बारह बजे से निकला हुआ जूलुस मुश्किल से बाणगंगा के सागर तट पर आपके पुनीत देह को तीन बजे से भी बाद ला सका। आचार्यवर्य के देहपिंड का उचित संस्कार प्रचुर चंदनादि काष्ठों से किया गया। भक्तगण संसार की प्रबल विचित्रता को सोचते-सोचते अग्नि संस्कार के दृश्य को देखते थे। आचार्यवर्य की आत्मा तो कब से विदा हो चुकी थी। अब यह 'पुद्गल पिंड' देहाकृति भी विलीन होती जाती थी।
दिन-दिन करते हुये आज इस प्रसंग के कितने साल हो चुके हैं। स्मृति कहती है कि नहीं यह तो कल की ही घटना है, लेकिन भ्रांत स्मृति को सत्य कहना भी तो अनुचित है।
एक-भावना : आचार्यवर्य की स्मृति पर अश्रुबिंदुओं का प्रपात स्वाभाविक हैं। लेकिन अश्रुधारा के बिंदुओं जितने अनल्प गुणी महात्मा के पवित्र जीवन चरित्र
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