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अंतिम उपदेश : क्षमायाचना एवं क्षमाप्रदान का एक ऐतिहासिक । महोत्सव पूर्ण हुआ। शिष्यों ने चाहा कि आचार्यवर्य प्रत्येक को कुछ विशेष उपदेश अंतिम समय की भावना के अनुकूल दें।
प्रत्येक शिष्य आर्चायवर्य की समीप में अनुक्रम से आने लगे। आचार्यवर्य ने प्रत्येक के जीवन एवं शक्ति के अनुसार महत्वपूर्ण उपदेश दिया। यद्यपि यह उपदेश व्यक्ति-व्यक्ति भिन्न था, तथापि उपदेश का प्रधान स्वरूप इस प्रकार था। १. “ भो शिष्यों ! शासन प्रेम को नस-नस में, मांसकी पेशी-पेशी में व्याप्त कर देना। २. " शासन के सत्यों की प्ररूपणा निरपेक्ष एवं निर्भिक होकर करना''। ३. सत्य प्ररूपण इस तरह से करना कि जिससे संघ में अशांति पैदा न हो। संघ समाधि के लिये व्यक्तिगत अभिप्रायों को कभी महत्त्व नहीं देना। लेकिन शास्त्र से निरपेक्ष तो कभी भी नहीं होना ।" ४. जीवन में कभी भी किसी की निंदा नहीं करना, यदि निंदा करने का प्रसंग आ जाय तो मेरी याद करना और वैसे प्रसंग से बचते रहना।
जो भी — शासन प्रभावना' करता हो उसकी बिना किसी संकोच अनुमोदना करना, प्रशंसा करना और यथाशक्ति सहयोग देने के लिये तत्पर रहना। ५. यद्यपि ज्ञान कम पढ़ोगे तो चिंता नहीं है लेकिन श्रद्धा एवं चरित्र में दृढ़तम बनना। ज्ञान यद्यपि जरूरी है; तथापि चरित्र का साधक ज्ञान ही सार्थक है, यह कभी नहीं भूलना। ६. प्रभावक न बन सको तो चिंता हीं लेकिन प्रवचन कुत्सा (निंदा) के हेतु कभी नहीं बनना। ७. मैंने जो भी ग्रंथ निर्माण किया है उन में छद्मस्थता के कारण कोई भी बात गलत हो तो स्वीकार कर लेना। स्वीकार करने से मेरे या तुम्हारे गौरव की हानि होगी यह कभी नहीं सोचना। शासन गौरव ही हम सबका उपादेय है।
अंतिम क्षण : मनुष्य का ही नहीं, देहधारी मात्र का देहांत होता है। अत: अंत कैसा है वही द्रष्टव्य है। कभी जीवन का अंत सारे जीवन से विलक्षण भी पाया जाता है। अत्याचारियों ने भी अंतिम क्षण को सुधारकर ऊर्ध्वगमन किया है। मानवीय जीवन का इहलौकिक महत्व प्राय: जीवन-कार्यवाही से अन्वित होता है, लेकिन पारलौकिक महत्व में अंतिम क्षण की आराधना ही प्राय: प्रधान होती है।
आगे के प्रकरणों में हमने आचार्यवर्य का जीवन देखा है, आपकी अंतिम भव्य आराधना भी देखी, अब उक्त दोनों से भी अपेक्षाकृत अधिक महत्वशाली आपके अंतिम क्षण को हम दर्शायेंगे।
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