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यह नम्रता की कुंजी है। “ खुदके शिष्यों भक्तों और सेवकों से कैसे क्षमायाचना की जाये? यह सोचनेवाला मुर्ख है।" वह क्षमापना के हार्द को नहीं समझ सका है। आचार्यवर्य ने इसी रहस्य को स्वरचित साहित्य में यथास्थान पर अभिव्यक्त किया है।
लेकिन आप केवल साहित्यकार ही नहीं किंतु वैराग्यवान भी थे। यही कारण था कि इस रहस्य को हम आचार्यवर्य के जीवन में अंकित हुआ देखते हैं।
__ बड़े या छोटे किसी से भी 'क्षमायाचना' में संकोच आप के जीवन में कभी नहीं आया। सैद्धांतिक होने के कारण आप कतिपय विचारों के तीव्र आलोचक भी थे। फिर आपके भी कई आलोचक होना स्वाभाविक था। लेकिन आलोचक समय आने पर गलती को समझ लेते थे, क्षमायाचना भी करते थे। तब आपके चेहरे पर दुःख की एक रेखा या असंतोष का सूक्ष्म चिन्ह भी प्रतीत नहीं होता था।
___ कालधर्म (देहांत) के दो-तीन दिन पहले सभी श्रावक और साधु-साध्वी गणों को एकत्रित करके आपने सबसे क्षमायाचना एवं क्षमा प्रदान करना चाहा।
यद्यपि आप बीमार थे, फिर भी इस महान् कर्तव्य का पालन करना जरूरी था। बीमारी की परवाह किये बिना आपने अत्यंत नम्रता से सब से क्षमायाचना की। सबको करुणापूर्ण हृदय से क्षमाप्रदान किया। .
"वत्स ! आप सबने भगवान् के शासन की आराधना के लिये मेरा सहारा लिया है। मैंने भी प्रभु के शासन की आराधना कराने के यथाशक्ति प्रयत्न किया है। आराधना में आगे बढ़ाने का प्रयत्न यद्यपि शास्त्रके अनुसार किया है, तथापि कोई त्रुटि होने के कारण किसी को भी दुःख हुआ हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ।"
___ गुरु महाराज की क्षमायाचना के मार्मिक वचनों से सभी शिष्य नत मस्तक हो गये। सोचने लगे कि लाखों आतपों को सहन करके भी जीवन में मधुर छाया देनेवाले आज विदा होना चाहते हैं। विदा होने के पहले चाहते हैं एक मात्र " क्षमापना"।
धन्य ! जिनेश्वर तेरे शासन को !
धन्य ! जिनेश्वर तेरे प्रभावकों को । प्रत्येक शिष्य-शिष्या आचार्यवर्य के वचन सुनते-सुनते अतीत की अज्ञान या प्रमाद-मूलक स्खलनाओं को आँखों की सामने नृत्य करती हई देखने लगते थे। प्रत्येक का अंत:करण यह स्खलनाओं का प्रायश्चित्त के लिये तड़पने लगा। प्रत्येक ने प्यारे गुरुवर के चरणों में शीश झुकाया। और आचार्यवर्य से स्खलनाओं की क्षमा प्रार्थना की। आचार्यवर्य ने उन नत मस्तकों पर मधुरतम आनंददायी हाथ फैलाया और “मिच्छामि दुक्कडम्” का भावपूर्ण स्वर निकाला।
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