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विजयजी) ने चाहा की हम आचार्यवर्य की स्मृति शक्ति का परीक्षण करें। आचार्यवर्य को उनका बनाया हुआ एक श्लोक सुनाया और कहा कि साहेब। "कितना बढ़िया यह श्लोक है किस महापुरुष ने बनाया होगा ?"
आचार्यवर्य ने कहा 'वत्स ! यह श्लोक कोई महापुरुष ने नहीं बनाया है लेकिन जिस व्यक्ति ने बनाया है उनको ही तूं सुना रहा है।' शिष्य ताज्जुब हो कुछ बोलना चाहता था लेकिन क्या बोल सकता था ! मन ही मन में सोचने लगा की मैंने कितना साहस कर दिया। जिस महापुरुष का वीर्यऊर्ध्व जाकर स्थित हो गया है वे कभी विस्मृति की जाल में फंस सकते हैं ?
अंतिम दिनों की रुग्ण अवस्था में कई शिष्यगण आपको अत्यंत भक्ति से आकृष्ट होकर प्रतिक्रमणादि क्रिया कराने के लिये आते थे। जब कोई स्थान पर शिष्य स्खलित हो जाते थे तो आचार्यवर्य ठीक परिमार्जन कर देते थे।
भारतभूमि के लिये अंतिम दिनों तक स्मृति-वैभव से विभूषित रहनेवाले शायद यह आखरी महात्मा ही होंगे। पतनशीलकाल को एक ऊर्ध्व महापुरुष प्राप्त होना अशक्य नहीं तो भयंकर दुःशक्य तो अवश्य ही है। वैराग्य : १८ साल की यौवनवय में विषयों में स्वाभाविक विरक्तता आत्माकी पूर्वजन्म की वैराग्य साधना का प्रबल पूरावा है। आचार्यवर्य को संसारी-रिश्तेदारों से संयम की अनुज्ञा बहुत कठिनाई से भी प्राप्त हुई थी। इसीलिये आपने तीव्र वैराग्य के स्थायी आवेग से घरसे तीसरी बार भाग जानेका प्रयत्न किया। पुरुषार्थ भाग्य को खींच लाया और तीसरी बार का आपका प्रयत्न सफल बना। यद्यपि संसारियों ने पीछा नहीं छोड़ा तो भी आपका वैराग्य देखकर सबको झुकना पड़ा।
कहने का मतलब यह है कि आपके उत्थान काल से ही आपकी वैराग्य भावना का परीक्षण चालू हो गया था। गुरु महाराजजी की पंजाबी प्रकृति में निर्बल वैरागी का टिकना मुश्किल था। लेकिन आपको बाधा नहीं अपितु आनंद की अनुभूति होती थी। दीक्षा-काल के प्रथम दशक में पंजाब भूमिका विकट और निःसहाय विहार अल्प वैरागी को नरक के दु:ख के समान भयानक था लेकिन आपने तो 'देवलोगसमाणो अ- परियाओ महेसिणं' (वैराग्यवान महर्षियोंका संयम का दु:ख देवलोक का सुख जैसा है) इस शास्त्र वचन को सत्य बनाया।
यौवनकालमें भी आपका वैराग्यबोधक ब्रह्मचर्य-तेज दुर्बलों के लिये असह्य बन जाता था।
कष्ट में एवं ग्लानावस्थामें तो वैराग्य की पराकाष्ठा देखी जाती है। आपको बीमारी कई बार लपटमें ले चुकी थी। लेकिन आपकी सहन
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