Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ १४ श्रीमद् राजवन्द्र पृष्ठ ३३५ १९ ३१९ पत्रांक पत्रांक परमार्थक तीन बलवान कारण ३१४-५ |३५१ पर अनुकम्पाके कारण चित्तका उद्वेग १४ ३२५ सत्संगका सेवन ३१६-७ ३५२ संसारमें उदासीन रहनेके सिवाय कोई ३२६ निश्चल दशाकी धारा उपाय नहीं ३२७ उपाधियोगमें वास ३५३ प्रारग्धोदयकी प्रतिकूलता ३३५ ३२८ क्षमा-इन्छा ३१८ ३५४ चित्तवृत्तिके विषयमें जो लिखा जाता है ३२९ सत्पुरुषसे आत्मधर्मका श्रवण ३१९ उसका अर्थ परमार्थ ही है ३३० अपराधोंकी क्षमा ३५५ सनातन पुरुषोंका सम्प्रदाय ३३५ ३३१ क्षमा याचना आत्मार्थके सिवाय संग-प्रसंगम ३३२ इश्वरेच्छाकी आधीनता नहीं पड़ना ३३३ क्रोध आदि दोषोंके क्षय होनेपर ही ३५६ ज्ञानी पुरुषका निष्काम बुद्धिसे संग करना ३३७ दीक्षा लेना ३२० । | ३५७ इस कालको दुःषमकाल क्यों कहा? ३३७-८ ३३४ ज्ञानी पुरुषोंका सनातन आचरण ३२० | ३५८ " समता रमता उरषता" ३३८ जो ईश्वरेच्छा होगी वही होगा ३२१ जीव-समुदायकी भातिके दो मुख्य कारण ३३९ ३३५ योगसिद्धिसे पारेका चांदी हो जाना ३२१ जीवके लक्षण ३३६ कर्म बिना भोगे निवृत्त नहीं होते . ३२१ | ३५९ उपाधिकी भीर ३३७भवांतरका ज्ञान ३२२ | ३६० असत्संगका कम परिचय करनेका अनुरोध ३४२ तीर्थंकर और सुवर्णवृष्टि १२२ | ३६१ मार्गकी कठिनता ३४२ दस बातोंका व्यवच्छेद ३२३ | ३६२ तीर्थकरके तुल्य कौन ३४२ ३३८ ईश्वराप्तिभाव ३२३ | ३६३ प्रवृत्तिका संयोग ३४२-३ २१९ ज्ञानी पुरुषोंका दर्शन ३२४ | ३६४ सत्संगके समागमका अनुरोध ३४० तीव्र वैराग्य ३२४ | ३६५ एक समयके लिये भी संसारमें अवकाशका ३४१ आत्मिक बंधनके कारण संसारका अभाव ३२५ निषेध ३४२ ध्यानका स्वरूप ३२५-६ | ३६६ ईश्वरेच्छासे जो हो उसमें समता रखना ३४३ *३४२ (२, ३) ध्यानके भद-शानी पुरुषकी ३६७ श्रमण भिक्षु आदिका अर्थ ३४४ पहिचान न होने में तीन महान् दोष ३२७ ५ ३६८ परमार्थका परम साधन ३४३ कृतशता-प्रकाश ३२७-३२८ निःसत्त्व जप तप आदि क्रियाओं में ३४४ भववासी मूडदशा ३२८ मोक्ष नहीं ३४५ ३४५ संसारमें सुख! ३२८ | ३६९ मार्गानुसारी और सिद्रियोग ६४६-७ ३४६ राग-दोषका नाश ३२९ ३७० क्षेत्र और कालकी दुषमता ३४८ ३४७ प्रारब्धोदयको सम परिणामसे वेदन करना ३२९ | ३७१ ध्यान रखने योग्य बातें ३४९ एक बहाना ३२९ ३७२ उपाधियोगका क्रम ३४९ व्रतके संबंध ३२९ ३७३ प्राणी आशासे ही जीते हैं ३४९-५० मोह-कषाय ३३० ३७४ दीनता अथवा विशेषता दिखाना आस्था और श्रद्धा ३३० योग्य नहीं २६ वा वर्ष ३७५ सम्यक्दृष्टिको सांसारिक क्रियाओंमें अरुचि ३५. १४८ कालकी दुःषमता ३३१ | ३७६ शारीरिक वेदनाको सहन करना योग्य है ३५१ मार्गकी दुष्प्राप्तिम पाँच कारण ३३१ | ३७७ सत्संग और निवृत्तिकी अप्रधानता । ३५२ शुष्क शानसे मोक्ष नहीं ३३२ | ३७८ सद्शान कब समझा जाता है ३४९ प्रमादकी न्यूनतासे विचारमार्गमे स्थिति ३१३ | ३७९ मेक आदिके संबंध ३५३ ३५. पुनर्जन्मकी सिदि ३३३ | ३८० उपाधियोगसे कष्ट

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 974