Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra,
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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विषय-सूची
२७९
पत्रांक पृष्ठ पत्रांक
पृष्ठ २६. "अनुक्रमे संयम स्पर्शतोजी" २७५ २९५ आत्माकी कृतार्थता
२९२ २५१ यशोविजयजीके वाक्य
२७५ । २९६ जैन और वेदांत आदिके भेदका त्याग २९२ २६२ क्षायिकचारित्रका स्मरण
२७५ २९७ जहाँ पूर्णकामता है वहाँ सर्वशता है २९२ २६३ सहन करना ही योग्य है २७६ २९८ पूर्णज्ञानका लक्षण
२९२ २६४ निजस्वरूपकी दुर्लभता
२७६ / २९९ योगीजन तीर्थंकर आदिके आत्मत्वका स्मरण २९३ २६५ " एक परिनामके न करता दरब दोह" २७७ : ३०. अखंड आत्मध्यानकी दशाम विकट २६६ उक्त पदका विवेचन . २७७-८ : . उपाधियोगका उदय
२९३ २६७ 'शांतसुधारस'
२७९ ३०१ ईश्वर आदितकमे उदासीनभाव-मोक्षकी २६८ ज़िन्दगी अल्प है, जंजाल अनन्त है
निकटता
२९४ २६९ "जीव नवि पुग्गली"
१७ ३०२ भाव समाधि और बाह्य उपाधिकी २७० माया दुस्तर है
२७९-८०
विद्यमानता संसारसंबंधी चिन्ताको सहन करना ही उचित है २४०३०३ मनके कारण ही सब कुछ
२९५ ३०४ लबा और आजीविकाका मिथ्यापना तीर्थकरका अंतर आशय २८१
२९६
३.५ आत्मविचार धर्मका सेवन करना योग्य है २९७ २७१ सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता २८२ २७२ "जबहीत चेतन विभावसौं उलटि आपु" २८२
कुलधर्मके लिये सूत्रकृतांगके पदनेकी
निष्फलता २७३ केवलज्ञान, परमार्थ-सम्यक्त्व, बीजरूचि
२९८ ___ सम्यक्त्व और मार्गानुसारीकी व्याख्या २८२३०६ अपने आपको नमस्कार
२९९ २७४ " सुद्धता विचारे घ्यावे"
२८३
३०७ शानीको प्रारब्ध, इश्वरेच्छा आदिमें समभाव २९९ २७५ उपाधिका प्रसंग
२८३ ३०८ समयसार पढ़नेका अनुरोध
३०० २७६ "लेबेकौं न रही ठौर"
२८३
३०९ मोक्ष तो इस कालमें भी हो सकता है ३०० २५७ पूर्वकर्मका निबंधन
२८३ मोक्षकी निस्पृहता
३.१ वनवासकी याद २८४ ३१० प्रभुभक्तिमें तत्परता
३०१ २७८ दर्शनपरिषह
२८५ __मत मतांतरकी पुस्तकोंका निषेध २७९ पुरुषार्थकी प्रधानता
३११ तेरहवें गुणस्थानका स्वरूप
३०२ २८० अंबारामजीके संबंध २८६ ३१२ दूसरा श्रीराम
३०२ २८१ देह होनेपर भी पूर्ण वीतरागताकी संभवता ३१३ चित्त नेत्रके समान है २८२ परिणामोंमें उदास भाव
२८७ ३१४ उपाधिमें विक्षेपरहित प्रवृत्तिकी कठिनता ३०४ २८३ सुख दुःखको समभावसे वेदन करना २८८३१५ शानीको पहिचाननेसे शानी हो जाता है २८४ परिणामोंमें अत्यन्त उदासीनता २८८३१६ श्रीकृष्णका वाक्य २८५ ज्योतिष आदिमें अरुचि
२८८३१७ जगत् और मोक्षके मार्गकी भिन्नता २८६ शान सुगम है पर प्राप्ति दुर्लभ है २८९ ३१८ " नागर सुख पामर नव जाणे" ३०५ २८७ आपत्ति वगैरह आना जीवका ही दोष २८९ वसिष्ठका वचन २८८ दुःषमकाल
२८९ | ३१९ आनन्दषनजीके वाक्य २८९ सत्संग फलदायक भावना
३२. " मन महिलानुं वहाला उपजे" ३०६-७ २९. सत्संगकी दुर्लभता
२९. ३२१ "तेम श्रुतधर्मे मन दृढ़ घरे" । २९१ लोककी स्थिति
२९.३२२ चित्रपटकी प्रतिमाके हृदयदर्शनसे महान फल ३०९ २९२ प्रारब्धको भोगे बिना कुटकारा नहीं २९१ | ३२३ क्षायिकसमकित
३०९-१३ २९३ धीरजसे उदयका वेदन करना
२९१ | ३२४ कालकी क्षीणता २९४ उपाधिका प्रतिबंध २९१ । जीवोंका कल्याण
३१४

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