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३३२ आरम्भ - परिग्रहका मोह मिटनेसे मुमुक्षुता
३३३ सत्पुरुषके प्रति अपने समान
कल्पना,
सेद्धातिक ज्ञान
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३३४ हमारे जैसे उपाधि प्रसग और चित्तंस्थिति
वाले अपेक्षाकृत थोडे, 'सर्वसंग' का लक्ष्यार्थ, देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है
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३३५ उदास - परिणाम, निरुपायताका उपाय काल वस्तुत ज्ञानीको पहचाननेवाला ध्यान आदि नही चाहता, उत्तम मुमुक्ष
३३६ 'वैराग्य प्रकरण' के वैराग्यके कारण पुन. पुन विचारणीय
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३३७ शोचनीय बात विचारणीय, 'सुखदुखका समताभावसे वेदन करना"
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३३८ पूर्वनिबद्ध कर्म "निवृत्त होनेके लिये शीघ्र उदय में आते हैं
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३३९ कर्मैबघ हमारा दोष, सतके ज्ञान में ही रुचि, व्यवहारमें आत्मा प्रवृत्त, नही होता, इस कार्यके पश्चात् 'त्याग'
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उलझनेका ध्यान रखना योग्य ३५२ दुखको समतासे भोगनेमें सच्चा कल्याण
और सुख
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३४० भवातकारी ज्ञानकी प्राप्ति
'दुष्कर
३४१ समाधि ही बनाये रखनेकी दृढता, पारमार्थिक दोषका ख्याल दुष्कर
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३४२ भावसमाधि तो है, द्रव्यसमाघि मानेके लिये ३२९
३४३ भाव समाविष
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३४४ उपाषि उदयरूपसे
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३४५ सत्सग करते रहना
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३४६ पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो ऐसा करते हैं ३४७ मन व्यवहारमें नही जमता, 'कर्तव्यरूप
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श्रीसत्सग' दुर्लभ, क्रोधादिसे अप्रतिवद्ध, कुटुम्बादिसे मुक्त जैसे मनको सत्सगका बघन ३३०
३४८ लोकस्थिति और रचना
३३० ३३०
३४९ लोकस्थिति आश्चर्यकारक
३५० ज्ञानीके सर्वसंगपरित्यागका हेतु क्या होगा ? ३३१ ३५१ सद्विचारके परिचय और उपाधिमें न
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३५३ अप्रमत्त आत्माकार मन उदयाघीन
३५४ समतिकी स्पर्शना और दशा
३५५ प्रतिवधता दुखदायक
३५६ ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका भी त्याग किया था
३५७ रुचि सत्यके ध्यानी संत आदिमें, आत्मा तो कृतार्थं प्रतीत होता है
३५८ सम्यग्दर्शन किसे ? दो प्रकारका मार्ग --- १ उपदेश प्राप्तिका, २ वास्तविक आत्मा जैनी व वेदान्ती नही है
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३५९ अपनापन दूर करना योग्य है । देहाभिमान रहतके लिये सबकुछ सुखरूप, हरीच्छामे दृढ विश्वास ३६० जहाँ पूर्णकामता वहाँ सर्वज्ञता, बोघबीजकों उत्पत्तिसे स्वरूपसुखसे परितृप्तता, क्षणिक
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जीवनमें नित्यता, अखड आत्मबोधका लक्षण ३३३ ३६१ उपाधिमें समावि ३३३ ३६२ आत्मता होनेसे समाधि, पूर्ण ज्ञानका लक्षण, सच्चे आत्मभानसे अहप्रत्ययी बुद्धिका विलय
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३६५ 'प्राणविनिमय' – मिस्मि रेजमकी
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३६३ व्यवहारको झझटमें परमार्थका विसर्जन
न हो
३६४ ज्ञानवार्ता लिखनेका व्यवसाय
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पुस्तक
सम्बन्धी
३६६ अखड आत्मध्यान, 'वनकी मारी कोयल' ३६७ उपाधि प्रसग तथापि आत्मसमाधि ३६८ ज्ञानोसे घनादिकी इच्छासे दर्शनावरणीय, ज्ञानीका उपजीवन पूर्वकर्मानुसार, ईश्वर आदि सहित सबमें उदासीनता, मोक्ष तो हमें सर्वानिकट
३६९ सब कुछ हरिके अघीन ३७० अविच्छिन्न रूपसे
आत्मध्यान, चित्तको
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नमस्कार
३७१ सत्सगसेवनसे लोकभावना कम हो, लोकसहवास भवरूप, मुमुक्षुका वर्तन, प्राप्ति में
कालक्षेप हानि नही, भ्राति होनेमे हानि ३७२ समागमका अभेद चिंतन
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