________________
[ समराइच्चकहा
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शंखवर्द्धन नाम का नगर है। वहाँ शंखपाल नाम का राजा था। उसके धर नाम का व्यापारी था। उसकी धन्या नामक स्त्री थी। उसके धनपति और धनावह नाम के दो पुत्र तथा गुणश्री नाम की पुत्री थी। वह पुत्री मैं ही हूँ। मेरा विवाह उसी नगर के निवासी सोमदेव के साथ हुआ था। मेरे पति की मृत्यु हो गयी। मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया। एक बार चन्द्रकान्ता नामक गणिनी आयीं । गणिनी के उपदेश से धर्मकार्य में रत हो गयी। एक बार छल से मैंने धनपति की पत्नी से धर्मोपदेशपूर्वक कहा -- अधिक कहने से क्या, साड़ी की रक्षा करो। उसके पति ने यह सुन लिया और सोचा कि निश्चित रूप में यह दुराचारिणी है, नहीं तो बहिन ऐसा कैसे कहतीं ? धनपति रुष्ट हो गया। अनन्तर मेरे समझाने पर वह प्रकृतिस्थ हो गया। दूसरे भाई की पत्नी से मैंने दूसरे प्रकार कहा अधिक कहने से क्या हाथ की रक्षा करो। उस जोड़े का भी वही हाल हुआ ।
इसी बीच मैंने कपटवचन कहने के रोष से तीव्र कर्म बाँधा में दोनों भाइयों और भाभियों के साथ प्रव्रजित हुई। आयु पूरी कर स्वर्गलोक गये । वहाँ भी आयु पूरी कर पहले मेरे भाई च्युत होकर इसी चम्पानगरी के पुष्पदत्त धनी के शम्पा नामक स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए। उन दोनों के नाम बन्धुदेव और सागर रखे गये। अनन्तर में स्वर्गलोक से युत हुई और गजपुर में शंख नामक धनी की शुभकान्ता नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयी। कालक्रम से मेरा जन्म हुआ। मेरा नाम सर्वांगसुन्दरी रखा गया। दोनों भाभियां भी स्वर्गलोक से च्युत होकर कोशलपुर नगर में नन्दन नामक धनी की देविला नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं। दोनों के नाम क्रमशः श्रीमती और कान्तिमती रखे गये कुछ समय बीता । मेरा बन्धुदेव के साथ विवाह हुआ । विवाह के अनन्तर जब बन्धुदेव शयन - गृह में प्रविष्ट हो रहा था तभी कपट के कारण बाँधा हुआ मेरा पहला कर्म उदित हुआ। अनन्त कर्मपरिणाम की अचिन्त्यता के कारण किसी प्रकार वहाँ क्षेत्रपाल आ गया। उसने सोचा-बन्धुदेव को धोखा दूँ इन दोनों का समागम न हो । अन्य पुरुष के रूप में बन्धुदेव को दिखाऊंगा और अपनी स्त्री के समान सर्वांगसुन्दरी से व्यवहार कर शंका उत्पन्न करूँगा - ऐसा सोचकर उसने जैसा सोचा था वैसा किया। बन्धुदेव ने खिड़की में झांककर देखा कि कोई देवी पुरुषाकृति कह रही है आज यहाँ सर्वांगसुन्दरी कहाँ है ? उसके मन में विकल्प हुआ और उस बन्धुदेव को कषायों ने जकड़ लिया । उसने सोचा मेरी स्त्री दुष्टशील वाली है। उसका स्नेह सम्बन्ध टूट गया। अनन्तर मैंने माता-पिता की
अ. ज्ञा लेकर यशोमती नामक साध्वियों की प्रमुख ( प्रवर्तिनी) से दीक्षा ले ली। इधर बन्धुदेव ने कोशलपुर में नन्द की पुत्री श्रीमती से विवाह किया और उसके भाई के साथ श्रीमती की बहिन कान्तिमती का विवाह हुआ। वह उन दोनों को चम्पा ले आया। इसी बीच विहार करती हुई में चम्पा आधी पूर्वभव के अभ्यास के कारण श्रीमती और कान्तिमती की मेरे प्रति प्रीति हो गई। इसी बीच मेरा दूसरा कर्म उदय में आया । श्रीमती और कान्तिमती की मेरे प्रति असाधारण भक्ति होने के कारण इन दोनों के भवन का वनमन्तर विस्मित हुआ। उसने सोचा- मैं धन चुराकर इन दोनों के साध्वी के प्रति चित्त को देखता हूँ । उस व्यन्तर के प्रयोग से चित्र से ही मोर उतरा। उसने बन्धुमती का हार लेकर उदर में डाला और अपने स्थान पर स्थित हो गया। मैंने आकर प्रवर्तिनी ( साध्वियों की प्रमुख) से कहा। उसने कहावत्से ! कर्म की परिणिति विचित्र है, इसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं । अतः अत्यधिक तप करना चाहिए और उस व्यापारी के घर नहीं जाना चाहिए। अनन्तर वे दोनों ही प्रतिश्रय में आने लगीं कुछ दिन के बाद मेरे शुभ परिणाम बढ़े और मुझे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उस कारणभूत कर्म के क्षीण होने परवानमन्तरको पश्चात्ताप हुआ और उसके प्रयोग से मोर ने हार छोड़ दिया। यह सुनकर राजदेव
૪૦
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org