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प्रवचनसार का सार
स्वस्थ और हम बीमार - ऐसे क्यों देखते हो? इस दृष्टि से देखो कि हम जैनी व तुम जैनी, हम मुमुक्षु और तुम मुमुक्षु । - ऐसे समानता वाले बिन्दुओं को देखो। असमानता पर ही हमारा ध्यान क्यों जाता है ? ___अरहंत को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानो अर्थात् उनके शुद्धोपयोग से उन्हें जो प्राप्त हुआ है - ऐसा अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुख ही अरहंत की पर्याय है; उसको जानो और फिर अपने सर्वज्ञस्वभाव को जानो। इसके साथ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की समानता भी जान लो।
भाई ! गलती तो एक समय की पर्याय में है। भूल है सुधर जाएगी। बड़े-बड़ों की गल्तियाँ सुधर गई हैं। ऐसा कौन था जो गल्तियों से रहित था। 'सदाशिवः सदाकर्मः' - ऐसा तो अपने यहाँ है ही नहीं। अपने यहाँ तो सब अनादिकाल से संसार में थे और फिर मोक्ष गए हैं।
इसतरह आचार्यदेव ने यहाँ सर्वज्ञता के स्वरूप पर बहुत वजन दिया है। यह जो सर्वज्ञता प्रगट हुई है; वह शुद्धोपयोग से ही हुई है। शुद्धोपयोग आत्मा को जानना ही है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि इस जीव के श्रुतज्ञान ने यदि उस आत्मा को जान लिया तो समझ लो सबकुछ जान लिया। आचार्य कहते हैं कि तुम कल के सर्वज्ञ हो। ____ अभी, वर्तमान में भले ही हमें लोकालोक जानने में नहीं आ रहा हो; लेकिन अभी भी लोकालोक जानने का हमारा स्वभाव है। श्रुतज्ञान के माध्यम से जिसने ऐसा जाना, समझ लो उसने सब जान लिया।
समयसार की १४४वीं गाथा की टीका में लिखा है कि आत्मा श्रुतज्ञान के माध्यम से आत्मा ज्ञानस्वभावी हैं' - ऐसा जाने । मैं इसकी व्याख्या इसप्रकार करता हूँ कि यह रागस्वभावी नहीं है, क्रोधस्वभावी नहीं है, पर का कर्तृत्वस्वभावी नहीं है, पर का भोक्तृत्वस्वभावी नहीं है; सिर्फ जाननस्वभावी है। जानना-जानना और जानना ही इसका स्वभाव है।
चौथा प्रवचन भगवान की दिव्यध्वनि के सार प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन नामक महाधिकार पर चर्चा चल रही है, जिसमें ज्ञानाधिकार के अंतर्गत सर्वज्ञता के स्वरूप पर विचार चल रहा है।
जो कुछ भी जगत में है; उस सबको पूरी तरह से जानना ही ज्ञान का स्वभाव है। केवलज्ञान, ज्ञान की वह स्वभावपर्याय है जो कि पूर्ण रूप से विकसित होकर प्रगट हो गई है। इस सन्दर्भ में ३७वीं गाथा महत्त्वपूर्ण है -
तक्कालिगेव सव्वे सदसन्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।।३७।।
(हरिगीत) असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब ।
सदज्ञान में वर्तमानवत ही हैं सदा वर्तमान सब ।।३७।। उन जीवादि द्रव्यसमूहों की सभी विद्यमान-अविद्यमान पर्यायें वास्तव में वर्तमान पर्यायों की भाँति विशिष्ट रूप से उस ज्ञान में वर्तती हैं।
यहाँ यह कह रहे हैं कि दर्पण में तो जो पदार्थ सामने हो, मात्र उसी की केवल वर्तमान पर्याय ही दिखाई देती है; किन्तु केवलज्ञान में तो सभी पदार्थों की भूतकाल में होकर नष्ट हो गईं सभी पर्यायें और भविष्यकाल में होनेवाली सभी पर्यायें भी वर्तमान पर्याय के समान ही स्पष्ट एकसाथ दिखाई देती हैं। ___ भगवान बुद्ध के सन्दर्भ में एक उदाहरण आता है कि उन्होंने एक जर्जर बुजुर्ग महिला को देखा। उसे निहारने के बाद उनके दिमाग में एकदम यह विचार आया कि 'देखी मैंने, आज जरा।' मैंने आज बुढ़ापा देखा है। 'क्या ऐसी हो जाएगी मेरी यशोधरा?' वे सोचने लगे कि क्या एक दिन मेरी पत्नी यशोधरा भी ऐसी ही हो जाएगी ?
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