________________
३३६
प्रवचनसार का सार प्रायश्चित्त हो जाएगा, कुछ गल्तियों के लिए मुनिराजों की दीक्षा ही छेद दी जाती है और बाद में पुन: पूरी प्रक्रिया पूर्वक दीक्षा दे दी जाती है एवं कुछ गल्तियाँ ऐसी होती हैं कि संघ से ही निकाल दिया जाता है और पुन: नहीं लिया जाता है।
कायचेष्टा संबंधी बहिरंग छेद में आलोचना पूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतिकार हो जाता है अर्थात् अंतरंग में तो छेद है नहीं और काया से गलती हो जाय तो अपनी आलोचना से उसका प्रतिकार हो जाता है।
विद्यार्थियों में कोई कक्षा में लेट आता है और वह यह कहता है कि मैं कल से समय पर आऊँगा तो उसको माफ कर दिया जाता है; लेकिन किसी अन्य विद्यार्थी की गलती इतनी ज्यादा होती है कि उसे कक्षा के समय बेन्च पर खड़े रहने के लिए कह दिया जाता है। जिसप्रकार विद्यार्थियों में भी दण्ड में भेद हैं; उसीप्रकार मुनिराजों में विभिन्न प्रकार से प्रायश्चित्त होता है।
अरे भाई ! कभी-कभी तो प्रायश्चित्त के लिए मुनिराजों को भी खड़ा कर दिया जाता है। अकंपनाचार्य ने श्रुतसागर को उस स्थान पर रात भर खड़े रहने के लिए कहा; जहाँ उन पर आक्रमण होने की सम्भावना थी। मैं अपने विद्यार्थियों से कहता हूँ कि तुम लोगों को तो ५-१० मिनिट के लिए खड़ा किया जाता है, श्रुतसागर को तो रात भर खड़े रहने के लिए कहा गया था। अरे भाई ! मुनियों को भी अनुशासन में रहना पड़ता है। उन श्रुतसागर की क्या गलती थी ? वे सिनेमा देखने थोड़े ही चले गये थे, उन्होंने किसी के साथ मार-पीट थोड़े ही की थी। उन्होंने तो मात्र मंत्रियों के साथ तत्त्वचर्चा की थी। उनकी गलती यह थी कि उन्होंने रास्ते में खड़े-खड़े विधर्मियों से चर्चा की थी।
उन्होंने तत्वचर्चा राह चलते की थी। तत्त्वचर्चा एक जगह बैठकर शांति से करने की चीज है न कि राह चलते। दूसरी बात यह है कि तत्त्वचर्चा चाहे जिससे करने की चीज नहीं है।
इक्कीसवाँ प्रवचन
३३७ मैं छात्रों से कहता हूँ कि जब तुम लोगों को ऐसा लगे कि हमें बहुत कठोर दण्ड दिया गया है; तब श्रुतसागरजी की घटना को याद कर लेना। तब वह दण्ड बहुत हल्का-फुलका लगने लगेगा।
शास्त्री अंतिम वर्ष के विद्यार्थी सोचते हैं कि हम शास्त्री' हो गए हैं और हमें इतना बड़ा दण्ड दे दिया गया। ___ अरे भाई ! श्रुतसागर मुनिराज का नाम श्रुतसागर नहीं; अपितु श्रुतसागर तो उनकी उपाधि थी। उनकी इतनी सामर्थ्य थी कि अवधिज्ञान से किसी का भी राह चलते पूर्व भव जान ले, वे कोई साधारण मुनिराज नहीं थे। जब श्रुत के सागर पर अनुशासनात्मक कार्यवाही हो सकती है तो शास्त्री तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों पर क्यों नहीं हो सकती। यह विचार कर उसे स्वीकार भी करना चाहिए।
इसप्रकार श्रमण के कायिक चेष्टा से जो गल्तियाँ हो जाती हैं; उनका प्रायश्चित्त आलोचना और प्रतिक्रमण से हो जाता है; लेकिन यदि भाव से गलती होती है तो आचार्य के समक्ष स्वयं मुनिराज अपना अपराध बताते हैं और आचार्य प्रायाश्चित देकर शुद्धि करते हैं। इसप्रकार इन सारी विधियों का वर्णन यहाँ पर किया गया है।
तदनन्तर गाथा २१५ का भावार्थ भी द्रष्टव्य है -
“आगमविरुद्ध आहार-विहारादि तो मुनिराज ने पहले ही छोड़ दिये हैं। अब संयम साधने की बुद्धि से मुनिराज के जो आगमोक्त आहार, अनशन, गुफादि में निवास, विहार, देहमात्र परिग्रह, अन्य मुनियों का परिचय और धार्मिक चर्चा-वार्ता पाये जाते हैं; उनके प्रति भी रागादि करना योग्य नहीं है, उनके विकल्पों से भी मन को रंगने देना योग्य नहीं है; इसप्रकार आगमोक्त आहार-विहारादि में भी प्रतिबंध प्राप्त करना योग्य नहीं है; क्योंकि उससे संयम में छेद होता है।"
देखो ! भावार्थ में कितने स्पष्ट एवं साफ शब्दों में लिखा है कि निर्दोष आहार, अनशन, गुफादि में निवास, विहार, देहमात्र परिग्रह,
165