________________
३४८
प्रवचनसार का सार
उपलब्धि भी सहज हो। आजकल तो दोनों की उपलब्धि ही कठिन हो गई। पीछी भी हजार-हजार रुपए में बनने लगी है। कमण्डलु भी महँगा बनता होगा; लेकिन उसके चोरी जाने की संभावना नहीं है; क्योंकि जितना खर्चा उसके बनने में लगता है, उतना रुपया उसके बेचने पर नहीं आएगा। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी चीज के बनने में पैसा लगना अलग बात है और बाजार में जाकर उसी वस्तु को बेचकर पैसा पैदा करना अलग बात है। सोने या चाँदी का कमण्डलु होगा तो उसको बेचकर तो पैसा प्राप्त किया जा सकता है; लेकिन लकड़ी के कमण्डलु को बेचकर पैसा प्राप्त नहीं किया जा सकता। किसी भी वस्तु के चोरी नहीं जाने का कारण उसको बेचकर पैसा प्राप्त नहीं होना है।
विदेशों में मैंने यह देखा कि अधिकांश मकान काँच के हैं, दरवाजे काँच के हैं, खिड़कियाँ काँच की हैं। एक बार मैंने एक सज्जन से कहा कि आपका यह मकान पूरा काँच का है, यहाँ कोई आकर पैर की ठोकर मारे तो टूट जाय और वह सामान वगैरह ले जा सकता है।
तब उन्होंने कहा कि हमारे पास है क्या, जो कोई ले जाएगा ? हमारा सब कुछ बैंकों में रहता है, बीस डॉलर भी कोई नगद नहीं रखता है, सब चैक से पेमेण्ट होता है।
तब मैंने कहा कि आपके यहाँ टी.वी. आदि महँगी-महँगी उपभोग की सामग्री तो है, तब उन्होंने कहा कि इनको कोई नहीं ले जाएगा; क्योंकि ये सैकण्ड हैण्ड हैं। यहाँ सैकण्ड हैण्ड कारें इतनी पड़ी हैं कि कोई इन्हें हिन्दुस्तान फ्री में भी ले जा सकता है, इन कारों की लाइन लग रही है। यहाँ हिन्दुस्तानी लोग आते हैं, सैकण्ड हैण्ड कार खरीदकर काम चलाते हैं, बाद में फिर वे भी नहीं लेते।
जिसप्रकार अमेरिका में सैकण्ड हैण्ड कारों को बेचने पर अधिक पैसा नहीं मिलता; उसीप्रकार कमण्डलु कितना भी महँगा बने; लेकिन उसको बेचने पर पैसा नहीं मिलता, इसीलिए उसकी चोरी होना
171
बाईसवाँ प्रवचन
३४९
संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में वह शुद्धोपयोग में साधक ही है, बाधक नहीं।
जिसप्रकार कमण्डलु के चोरी होने की संभावना नहीं है; उसीप्रकार गुरु के वचन भी चोरी नहीं हो सकते। किताब चोरी हो सकती है; लेकिन गुरु के वचन नहीं; क्योंकि गुरु के वचन हृदय में जाकर बस चुके हैं। यही कारण है कि पुस्तक के स्थान पर गुरु वचनों को उपकरण माना है।
तदनन्तर 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं' - ऐसा उपदेश करनेवाली गाथा २२४ की टीका का भाव इसप्रकार है
" श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया है - ऐसा शरीर भी परद्रव्य होने से परिग्रह है, अनुग्रह योग्य नहीं; किन्तु उपेक्षा योग्य ही है - ऐसा कहकर भगवन्त अर्हन्तदेवों ने अप्रतिकर्मपने का उपदेश दिया है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष अन्य परिग्रह अनुग्रह योग्य कैसे हो सकता है ? - ऐसा उन अर्हन्तदेवों का आशय व्यक्त ही है। इससे निश्चित होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निर्ग्रथपना ही अवलम्बन योग्य है।”
टीका में स्पष्ट रूप से शरीर को भी उपधि अर्थात् परिग्रह ही कहा है, शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह ही है । यह शरीर मुनिराजों द्वारा चिन्ता करने योग्य नहीं है। शरीर को त्यागना आत्महत्या है, अपराध है; यद्यपि मुनिराज आत्महत्या नहीं कर सकते; तथापि यह शरीर उपेक्षा योग्य ही है, अनुग्रह योग्य नहीं। शरीर बाहर की वस्तु होने से राग करने लायक नहीं है; क्योंकि यह भी बाह्य परिग्रह है।
मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हम लोग तो इस ओर अग्रसर होते हैं कि राग अपना नहीं है, केवलज्ञान अपना नहीं है; किन्तु आचार्य तो शरीर से प्रारम्भ करके स्त्री, पुत्रादि अपने नहीं है - इस ओर अग्रसर हो रहे हैं और वह भी श्रमणों के संदर्भ में। यह बात मुमुक्षुओं को भी समझने योग्य है और श्रमणों को भी ।