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प्रवचनसारका सार
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यह बतानेवाली अगली गाथा इसप्रकार है -
वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण शिंदिदा वा सुहोवजुदा ।।२५३।।
(हरिगीत) ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से।
निंदित नहीं शुभभावमय संवाद लौकिकजनों से ।।२५३।। रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से, शुभोपयोग युक्त लौकिकजनों के साथ की बातचीत निन्दित नहीं है।
गृहस्थ लौकिकजन कहलाते हैं तथा मुनियों को ऐसे लौकिकजनों के साथ बातचीत करना सर्वथा वर्जित है; किन्तु वैयावृत्ति के निमित्त से सुविधा जुटाने के लिए यदि मुनिराज लौकिकजनों से बात करते हैं तो वह निन्दित नहीं हैं।
शुभोपयोगी मुनियों को शुभोपयोग के काल में बात करना निंदित नहीं है; किन्तु शुद्धोपयोग के काल को छोड़कर बात करना निंदित है।
इसी संदर्भ में इस गाथा की टीका भी द्रष्टव्य है -
“शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही शुभोपयोगी श्रमण को शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगों के साथ बातचीत प्रसिद्ध है, निषिद्ध नहीं है; किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो - ऐसा नहीं है।"
टीका में कथित शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगों से तात्पर्य मिथ्यादृष्टि लोगों से है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि तो शुद्धात्मपरिणतिवाले हैं। उन मिथ्यादृष्टि लोगों से भी रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही बातचीत कर सकते हैं तथा यदि अन्य कारण से बातचीत करें तो वह ठीक नहीं है।
पंचकल्याणकों में जब केवलज्ञान कल्याणक होता है, उस दिन प्रसंग होने से मैं मुनियों की चर्या पर थोड़ी चर्चा करता हूँ। उस दिन मैं यह भी बताता हूँ कि मुनिराज खड़े-खड़े आहार क्यों लेते हैं, बैठकर
तेईसवाँ प्रवचन क्यों नहीं लेते हैं, जब मुनिराज आहार करने जाते हैं तो मौन होकर क्यों जाते हैं । मुनिराज खड़े-खड़े आहार इसलिए लेते हैं; क्योंकि जिस जगह वे आहार लेने जा रहे हैं, वह गृहस्थ का घर है तथा गृहस्थ का घर मुनिराजों के बैठने लायक नहीं होता है। मुनिराज मौन लेकर इसलिए जाते हैं; क्योंकि भाषा दूसरों से जोड़ती है और मुनिराज को किसी से जुड़ना ही नहीं है। मुनिराजों को यदि आहार की मजबूरी न हो तो वे गृहस्थ के घर जाए ही नहीं; किन्तु आहार हेतु गृहस्थ के घर जाना पड़ता है, इसलिए वे पहले से ही मौन का कवच पहिनकर जाते हैं। ___इस संबंध में कुछ विशेष जानने की जिज्ञासा हो तो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव नामक पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए।
अब, आचार्य २५४वीं गाथा में यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है -
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदाता एव परं लहदिसोक्खं ।।२५४।।
(हरिगीत) प्रशस्त चर्या श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन ।
के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हो।।२५४।। यह प्रशस्तभूत चर्या श्रमणों के (गौण) होती है और गृहस्थों के तो मुख्य होती है, ऐसा (शास्त्रों में) कहा है; उसी से (परम्परा से) गृहस्थ परमसौख्य को प्राप्त होता है।
इस गाथा के 'घरत्थाणं' शब्द के संबंध में भाषा की दृष्टि से कुछ बताना चाहता हूँ। संस्कृत में घर को 'गृह' बोलते हैं। 'घरत्थाणं' अर्थात् घर में रहनेवाला। हिन्दी में जो यह 'घर' शब्द आया है, यह प्राकृत से आया है, संस्कृत से नहीं आया है। यह प्राकृत से अपभ्रंश में होता हुआ हिन्दी में आया है। संस्कृत में 'गृह' शब्द है तथा हिन्दी, अपभ्रंश और प्राकृत में 'घर' शब्द है।
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