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प्रवचनसार का सार
३९० है; वह वास्तव में भूतार्थस्वसंबंध दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है, पूर्वकाल में कभी जिसका अनुभव नहीं किया, ऐसे भगवान आत्मा को प्राप्त करता है - जो कि (जो आत्मा) तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सकल पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत है।" ___ इसप्रकार यहाँ पर प्रवचनसार ग्रंथ की मूल गाथाएँ समाप्त होती हैं। इसके बाद आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने तत्त्वप्रदीपिका टीका के परिशिष्ट में ४७ नयों की चर्चा की है तथा बाद में आचार्यदेव ने कुछ श्लोकों और गद्य के माध्यम से इस प्रवचनसार नामक ग्रंथ के सार को बताया है। परिशिष्ट में आचार्य अमृतचन्द्र शिष्य की ओर से शंका उठाते हुए कहते हैं
“ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यत इति चेत्, अभिहितमेतत् पुनरप्यभिधीयते । - 'यह आत्मा कौन है (कैसा है) और कैसे प्राप्त किया जाता है' - ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर पहले ही कहा जा चुका है और यहाँ पुनः कहते हैं।"
यह परिशिष्ट की प्रथम पंक्ति है; जिसमें शिष्य शंका करते हुए पूछ रहा है कि यह आत्मा कौन है तथा इसको कैसे प्राप्त किया जा सकता है? आचार्यदेव इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि अरे भाई! इसके पहले समग्र प्रवचनसार में हमने इसी आत्मा को ही तो बताया है; लेकिन फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा को देखकर हम इसके बारे में कहते हैं।
प्रवचनसार को समग्ररूप से पढ़ने के बाद यदि कोई यह कहता है कि आत्मा क्या है और कैसे मिलता है ? तो यह वैसे ही है, जैसे कोई रातभर रामायण पढ़े और सुबह यह पूछे कि राक्षस कौन था - राम या रावण ?
प्रवचनसार में समग्ररूप से आत्मा को समझाने के बाद यदि आचार्यदेव पुनः आत्मा के बारे में समझाते हैं तो इसका तात्पर्य यह है कि आचार्यदेव यह बात समझते हैं कि पूछनेवाला शिष्य कोई साधारण शिष्य नहीं है। जिसने पूरा प्रवचनसार पढ़ा हो; उसके बाद यदि वह पूछ रहा है, तो इसमें कुछ गहराई है।
चौबीसवाँ प्रवचन
३९१ जिस व्यक्ति ने रामायण सुनी हो, उसको पहले यह बताया गया था कि रावण बुरा आदमी था और राम बहुत अच्छे थे; इसलिए रामायण सुनने का लोभ उसे जागृत हुआ; किन्तु जब उसने रामायण सुनी; तब रामायण सुनने से उसे शक हो गया कि राक्षस कौन था, राम या रावण ?
समग्र रामायण सुनने पर उसे शक इसलिए हुआ कि "रावण तो सीता का अपहरण करके ले गया था तथा उसने सीता को अपने घर बहुत आदर-सत्कार के साथ रखा था एवं सीता को रावण ने हाथ भी नहीं लगाया था तथा रावण उसके आगे हाथ ही जोड़ता रहा; किन्तु जब सीता राम के पास वापस आ गई, तब राम ने सीता को बिना बताये जंगल में पशु-पक्षियों के बीच अकेली छोड़ दिया तथा उस समय सीता गर्भवती थी, राम उसके पति थे तथा गर्भ में राम की ही संतान थी - ऐसी परिस्थिति में उस व्यक्ति को यह बात समझ में नहीं आई कि राक्षस राम था या रावण?
जब लक्ष्मण को शक्ति लग गई, तब राम ने रावण से युद्ध बंद करने के लिए कहा तो रावण ने उसी समय युद्ध बंद कर दिया। इसके बाद अष्टान्हिका पर्व में जब दोनों पक्षों से यह तय हो गया कि हम युद्ध नहीं करेंगे; क्योंकि ये आठ दिन धर्म की आराधना के दिन हैं। तदनन्तर जब रावण भगवान के चैत्यालय में बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने के लिए ध्यान कर रहा था; तब लक्ष्मण आदि ने उसके ध्यान में बहुत विघ्न डाले तथा मायामयी मंदोदरी बनाकर उसकी चोटी पकड़कर रावण के सामने घसीटा तथा रावण से यह भी कहा कि हम तेरी मंदोदरी ले जा रहे हैं। इसप्रकार लक्ष्मणादि ने रावण के धर्मकार्य में विघ्न किये; किन्तु रावण की ओर से किसी ने भी विघ्न नहीं किये। ऐसी स्थिति में पूरी रामायण सुनने पर उस व्यक्ति को शंका हुई; क्योंकि रावण के घर तो सीता सुरक्षित रही; लेकिन राम के घर सुरक्षित नहीं रही। 'सुरक्षित नहीं रही' का तात्पर्य यह है कि राम ने सीता को वनवास दे दिया।
इसलिए जिसप्रकार पूरी रामायण सुनने पर उस व्यक्ति को शक हो
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