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प्रवचनसार का सार अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड भगवान आत्मा प्रमाण का विषय है।
श्रुतज्ञान प्रमाण से जानी हुई वस्तु अनुभव का विषय है और अनुभव स्वयं प्रमाण है। धर्मी प्रमाण का विषय है तथा धर्म नय का विषय हैं।
गुरुदेवश्री के प्रवचनों के संग्रह नयप्रज्ञापन में उन्होंने कहा है कि धर्म को नहीं, अपितु धर्मी को ग्रहण करना है; क्योंकि धर्मी प्रमाण का विषय है।
४७ नयों की चर्चा में आचार्यदेव ने सबसे पहले द्रव्यनय और पर्यायनय को लिया; किन्तु ये द्रव्यनय और पर्यायनय द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की भाँति नहीं है, उनसे एकदम भिन्न हैं।
आत्मा के अनंत धर्मों में एक 'द्रव्य' नामक धर्म है तथा एक 'पर्याय' नामक धर्म है। यह 'द्रव्य' नामक धर्म गुणों के समूह वाला द्रव्य नहीं है; अपितु आत्मा के अनन्त धर्मों में से एक धर्म का नाम द्रव्य है।
'द्रव्य' शब्द का एक यह भी अर्थ है - यह बात बड़े-बड़े पण्डितों के ध्यान में नहीं है। लोग पर्याय' नामक धर्म और गुणों के परिणमनरूप पर्याय - इन दोनों को एक ही समझते हैं; जबकि यह बात प्रवचनसार में तो लिखी ही है, नयप्रज्ञापन में भी है तथा मैंने ‘परमभावप्रकाशक नयचक्र' में इस पर विशेष ध्यान आकर्षित किया है। फिर भी इस ओर लोगों का ध्यान जाता ही नहीं है।
वास्तव में आचार्यदेव ने ४७ नयों का नहीं, अपितु आत्मा के ४७ धर्मों का वर्णन किया है। नय तो उन ४७ धर्मों को विषय बनानेवाले ज्ञान के अंश हैं।
सर्वप्रथम द्रव्यनय और पर्यायनय को समझाने के लिए आचार्यदेव ने पट और तन्तु का उदाहरण दिया है। पट में अनेक ताने-बाने होते हैं। जब कपड़ा बुना जाता है, उस समय जो धागा लम्बाई में रहता है, उसे ताना कहते हैं तथा जो धागा चौड़ाई में रहता है, उसे बाना कहते हैं।
उस वस्त्र को यदि वस्त्रमात्र की दृष्टि से देखेंगे तो वस्त्र ही दिखेगा, ताना-बाना नहीं दिखेंगे। कपड़े में जो ताना-बाना हैं, वे वस्त्र के ही
पच्चीसवाँ प्रवचन अंश हैं। यदि कपड़े को ताने-बाने के रूप में देखा जाय तो ताना-बाना ही दिखेगा, कपड़ा नहीं दिखेगा।
उसीप्रकार द्रव्य में एक ऐसा धर्म है जो द्रव्य के तिर्यक् प्रचय और ऊर्ध्वता प्रचय को जोड़ता है, उस धर्म का नाम द्रव्य है। आत्मा को भी यदि द्रव्यनय से देखा जाय तो वह गुणपर्यायरूप नहीं; अपितु गुणपर्याय का अखण्ड पिण्ड दिखाई देगा; द्रव्यनय से न तो उसमें गुण दिखाई देंगे, न ही प्रदेश और न पर्यायें।
इसप्रकार यह द्रव्यनय और पर्यायनय का संक्षिप्त स्वरूप है। इस विषय को समझने के लिए परमभावप्रकाशक नयचक्र' का निम्नांकित कथन उपयोगी है। ___ “यद्यपि वस्त्र में अनेक ताने-बाने होते हैं, विविध आकार-प्रकार होते हैं, विविध रंग-रूप भी होते हैं; तथापि सबकुछ मिलाकर वह वस्त्र वस्त्रमात्र ही है। ताने-बाने आदि भेद-प्रभेदों में न जाकर उसे मात्र वस्त्र के रूप में ही देखना-जानना द्रव्यनय है; अथवा द्रव्यनय से वह वस्त्रमात्र ही है। ठीक इसीप्रकार चेतनास्वरूप भगवान आत्मा में ज्ञान-दर्शनरूप गुण व पर्यायें भी हैं, तथापि गुणपर्यायरूप भेदों को दृष्टि में न लेकर भगवान आत्मा को एक चैतन्यमात्र जानना द्रव्यनय है; अथवा द्रव्यनय से भगवान आत्मा चिन्मात्र है।"
यहाँ द्रव्यनय और पर्यायनय का विशेष वर्णन करना संभव नहीं है; अतएव पाठकों को अपनी जिज्ञासा की पूर्ति लेखक की कृति परमभावप्रकाशक नयचक्र' के 'सैंतालीस नय' वाले प्रकरण से करना चाहिए।
द्रव्यनय और पर्यायनय के बाद आचार्यदेव ने सप्तभंगी से संबंधित नयों का वर्णन किया है। मैं एक बात यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ४७ नयों में ३६ नय तो युगल के रूप में हैं तथा ७ नय सप्तभंगी के हैं और ४ नय निक्षेपों के नामवाले हैं। १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ २८०
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