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प्रवचनसार का सार
(हरिगीत) गुणाधिक को खड़े होकर अंजलि को बाँधकर।
ग्रहण-पोषण-उपासन-सत्कार कर करना नमन ।।२६२।। गुणों में अधिक (श्रमणों) के प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण (आदर से स्वीकार), उपासन (सेवा), पोषण (उनके अशन, शयनादि की चिंता), सत्कार (गुणों की प्रशंसा), अंजलि करना (विनयपूर्वक हाथ जोड़ना) और प्रणाम करना यहाँ कहा है।
गाथा में कथित उपरोक्त कार्य मुनिराज अपने गुणों से अधिक गुणों वाले मुनिराजों के प्रति करते हैं तथा अपने गुणों से कम गुणोंवाले मुनिराजों को आशीर्वाद आदि देते हैं; लेकिन समस्या यह है कि जब पहली बार आपस में मिले तब क्या करें ? क्योंकि वे तो एक-दूसरों को जानते ही नहीं हैं कि किनमें गुण ज्यादा है और किनमें कम । ___ इस संबंध में आचार्यदेव ने लिखा है कि जब वे सर्वप्रथम मिले, तब एक-दूसरे को गुणाधिक मानकर ही विनय-व्यवहार करें तथा बाद में जब परिचय हो जावे, तब यथोचित व्यवहार करें।
इस संबंध में बहुत सारी बातें हैं, उनके बारे में यदि अधिक कहूँगा तो लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए इसके बारे में विस्तार से जानने के लिए प्रवचनसार की चरणानुयोगसूचक चूलिका ध्यान से पढ़ना चाहिए।
अब यदि कोई कहे कि 'हमें ज्यादा पढ़ने की क्या जरूरत है ? हमें मुनि थोड़े ही बनना है?'
अरे भाई ! ऐसा नहीं है। हमें मोक्ष जाना है तो मुनि बनना ही है। 'हमें मुनि नहीं बनना है' ऐसी कल्पना भी कभी दिमाग में नहीं लाना चाहिए। यदि इस भव में मुनि नहीं भी बन सके, तब भी देव-शास्त्र-गुरु का सच्चा स्वरूप समझे बिना सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म की शुरुआत नहीं हो सकती; इसलिए भी देव-शास्त्र-गुरु का सच्चा स्वरूप समझने के लिए इस प्रकरण को पढ़ना चाहिए।
चौबीसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम की चरणानुयोगसूचक चूलिका पर चर्चा चल रही है। उसमें शुभोपयोगप्रज्ञापन नामक अवान्तर अधिकार के अन्तर्गत अभी तक यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि छटवें-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज जब शुभोपयोग में होते हैं, तब उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए ?
अब, इसी संदर्भ में श्रमणाभासों की समस्त प्रवृत्तियों का निषेध करनेवाली गाथा २६३ की टीका भी द्रष्टव्य है - ___ “जिनके सूत्रों में और पदार्थों में विशारदपने के द्वारा संयम, तप
और स्वतत्त्व ज्ञान प्रवर्तता है; उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध हैं; परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं।"
इस टीका में इन अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियों को अनिवार्य किसी के लिए भी नहीं कहा है अर्थात् जो अपनी साधना में लगे हैं, उन्हें अपनी साधना छोड़कर ये प्रवृत्तियाँ करना आवश्यक नहीं है। जो स्वयं से हीन है, उनके प्रति तो ये प्रवृत्तियाँ निषिद्ध है तथा जो तत्त्वज्ञान से रहित हैं, उनके प्रति ये प्रवृत्तियाँ गृहीत मिथ्यात्व हैं।
यहाँ प्रश्न अकेला काय की नमस्कारादि क्रिया का नहीं है; अपितु जिनके प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा होगी, वह श्रद्धा अधिक खतरनाक है; क्योंकि हम उनका मार्गदर्शन भी स्वीकार करेंगे, उन्हें आदर्श मानकर उनके जीवन का अनुकरण भी करेंगे; तब उनके मिथ्यात्व की सारी प्रवृत्तियाँ हमारे जीवन में आने की संभावना बनी ही रहती है; इसलिए उनके प्रति समस्त क्रियाओं को निषिद्ध कहा है।
तदनन्तर, 'कैसा जीव श्रमणाभास है ?' यह बतानेवाली गाथा २६४ की टीका का भाव इसप्रकार है -
“आगम का ज्ञाता होने पर भी, संयत होने पर भी, तप में स्थित
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