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प्रवचनसार का सार है; क्योंकि यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जाय तो उसे लाभ ही लाभ है। अधिक गुणवालों के साथ रहने से उसे कुछ न कुछ सीखने को मिलेगा ही; अधिक गुणवाले को हानि ही हानि है; क्योंकि उसे तो कुछ नया सीखने मिलने वाला ही नहीं है तथा वह जितने समय तक अपने से कम गुणवालों को सिखाएगा; उसका उतना समय भी बर्बाद होगा। ___यदि कोई टोडरमल स्मारक भवन में आकर रहे तो वहाँ पर तो दो सौ पण्डित हैं - ऐसी स्थिति में हो सकता है प्रवचन करने के लिए उसे अवसर ही न मिले; किन्तु 'निरस्पादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते' अर्थात् जहाँ वृक्ष नहीं होते हैं, वहाँ पर एरण्ड का वृक्ष भी बड़ा वृक्ष माना जाता है; उसीप्रकार यदि वह व्यक्ति ऐसे स्थान पर रहता है; जहाँ पण्डित नहीं है, तो वहाँ पर सबसे बड़ा पण्डित बन जावेगा; किन्तु सीखने की दृष्टि से हानि ही है।
इसप्रकार आचार्यदेव ने समानगुणवालों तथा अधिक गुणवालों के साथ रहने के लिए मार्गदर्शन दिया है। __अब समस्या यह है कि जो सबसे अधिक गुणवाला व्यक्ति है; वह किसके पास रहेगा? __ ऐसे लोग जिनकी बराबरी के या जिनसे उच्च गुणधर्मवाले व्यक्ति नहीं हों, उनके लिए उक्त सलाह नहीं है; क्योंकि वे स्वयं में इतने बड़े हैं कि स्वयं को भी सँभाल सकते हैं तथा अपने संयोग में रहनेवालों को भी सँभाल सकते हैं। वे तो एक अपवाद हैं; अत: यह नियम उन पर लागू नहीं होता।
इसप्रकार यहाँ शुभोपयोगप्रज्ञापन नामक अवान्तर अधिकार समाप्त होता है; जिसमें यह बताया गया है कि मुनिराजों का स्वरूप कैसा होता है तथा उनका आचरण कैसा होना चाहिए, उन्हें किनकी संगति में रहना चाहिए तथा किसको नमस्कार करना चाहिए ?
शुभोपयोगप्रज्ञापन अधिकार के बाद चरणानुयोगसूचक चूलिका में
चौबीसवाँ प्रवचन वे अंतिम ५ गाथाएँ हैं; जिन्हें आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने पंचरत्न नाम दिया है। उन्हें ये गाथाएँ इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण लगीं कि उन्होंने इन गाथाओं को पंचरत्न की ही संज्ञा दे दी।
वास्तविक बात यह है कि जब ग्रंथ का अंत करने लगते हैं या व्याख्यान का अंत करते हैं तो उपदेश की भाषा में करते हैं, प्रेरणा देते हैं। इसीप्रकार इस ग्रंथ में भी चरणानुयोगसूचक चूलिका में यह बताने के बाद कि 'मुनि किसप्रकार बनना चाहिए तथा मुनि कैसे होने चाहिए ?' आचार्यदेव इन पंचरत्न की पाँच गाथाओं में निष्कर्ष के रूप में यह बता रहे हैं कि कौन भ्रष्ट मुनि हैं तथा कौन सही मुनि हैं ?
न्यायशास्त्र के उद्भट विद्वान आचार्य विद्यानन्दजी ने चार तत्त्वों का वर्णन किया है - संसारतत्त्व, संसारोपायतत्त्व, मोक्षतत्त्व और मोक्षोपायतत्त्व । इन पंचरत्न गाथाओं में भी आचार्यदेव ने यह बताया है कि भ्रष्टमुनि ही संसारतत्त्व हैं तथा सही मुनि ही मोक्षतत्त्व हैं तथा अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित ज्ञानी-ध्यानी मुनि ही मोक्षोपायतत्त्व हैं - यही इन पंचरत्न गाथाओं का सार है।
सर्वप्रथम, इन पंचरत्न गाथाओं में संसारतत्त्व को प्रकट करनेवाली २७१वीं गाथा इसप्रकार है
जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छदा समये । अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ।।२७१ ।।
(हरिगीत) अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में।
कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ।।२७१।। जो भले ही समय में हो (भले ही वे द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत में हों) तथापि वे 'यह तत्त्व हैं (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है)' इसप्रकार निश्चयवान वर्तते हुए पदार्थों को अयथार्थरूप से ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं है, वैसा समझते हैं), वे अत्यन्तफल समृद्ध (अनन्तकर्मफलों से भरे हुए) ऐसे अबसे आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।
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