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प्रवचनसार का सार
देव-शास्त्र-गुरु जैसे गुरु नहीं है; किन्तु उन्होंने हमारा साक्षात् उपकार किया हो, उनसे देशना मिली हो तो वे सापेक्ष गुरु हैं। यद्यपि उनके साथ देव-शास्त्र-गुरु जैसा स्वागत-सत्कार व्यवहार नहीं होगा; फिर भी उनका यथोचित विशेष सम्मान तो होगा ही।
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एक पत्नी जितना आदर-सत्कार अपने पति का करेगी, उतना दुनिया के किसी भी पुरुष का नहीं करेगी। उसीप्रकार सापेक्ष गुरुओं का जितना सम्मान होगा, उतना उनके गुरु के गुरु का भी नहीं होगा।
इसप्रकार सापेक्ष गुरु और निरपेक्ष गुरु के भेद से गुरु दो प्रकार के हैं। इस चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक प्रकरण में निरपेक्ष गुरुओं की चर्चा चल रही है। 'इन निरपेक्ष गुरुओं ने हमारा साक्षात् क्या उपकार किया है ?' इससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है; किन्तु यदि छटवें - सातवें गुणस्थान के योग्य उनका ज्ञान, चारित्र और आत्मानुभव है तो उनका अभ्युत्थान, अष्टद्रव्य से पूजन, विनय, सत्कारादि करना ही चाहिए।
इसके बाद 'सत्संग' विधेय हैं - यह बतलानेवाली गाथा २७० की टीका का भाव इसप्रकार है -
“आत्मा परिणामस्वभाववाला है; इसलिए अग्नि के संग में रहे हुए पानी की भाँति संयत के भी लौकिक संग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत ही हो जाता है। इसलिए दुःखमोक्षार्थी (दुःखों से मुक्ति चाहनेवाले) श्रमण को (१) समान गुणवाले श्रमण के साथ अथवा (२) अधिक गुणवाले श्रमण के साथ ही सदा निवास करना चाहिये । इसप्रकार उस श्रमण के (१) शीतल घर के कोने में रखे हुए शीतल पानी की भाँति समान गुणवाले की संगति से गुणरक्षा होती है और ( २ ) अधिक शीतल हिम के संपर्क में रहनेवाले शीतल पानी की भाँति अधिक गुणवाली के संग से गुणवृद्धि होती है।”
इस टीका में यह कहा है कि यदि मुनिराज एकलविहारी हैं तो सर्वश्रेष्ठ हैं, उनका किसी के साथ रहना अनिवार्य नहीं है। आर्यिकाओं के संबंध में इसके विपरीत नियम है कि आर्यिकाओं को कभी भी
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चौबीसवाँ प्रवचन
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अकेले नहीं रहना चाहिए, कम से कम दो आर्यिकाओं को साथ-साथ रहना चाहिए। तदनन्तर आचार्यदेव ने टीका में यह मार्गदर्शन दिया है कि यदि मुनिराजों को किसी के साथ में रहना पड़े, तो किनके साथ रहे ?
इसके उत्तर में कहा गया है कि मुनिराजों को अपने से अधिक गुण वालों के साथ रहना चाहिए। यदि उनका समागम संभव नहीं हो, तो समान गुणवालों के साथ रहना चाहिए; किन्तु लौकिकजनों के साथ नहीं रहना चाहिए; क्योंकि लौकिकजनों के संयोग में भ्रष्ट हो जाने की संभावना है।
कई मुनिराज भक्तों से घिरे रहते हैं, वे अपने गुणों के समान गुणवालों के साथ भी नहीं रहते हैं तथा अधिक गुणों वाले अपने गुरु के पास भी नहीं रहते हैं तथा अन्य लौकिकजनों से घिरे रहते हैं; उनका भ्रष्ट होना निश्चित ही है।
जिस दिन गोविंदबल्लभ पंत का स्वर्गवास हुआ था; उस दिन नेहरूजी ने अपनी श्रद्धांजलि में एक वाक्य कहा था कि आज वह अंतिम व्यक्ति भी चला गया है जो मेरा हाथ पकड़कर यह कह सकता था कि 'नेहरु यह गलत है'। अब मेरी चिंता यह है कि यदि मेरे से कोई गलत काम होगा तो कोई उसे गलत कहनेवाला नहीं है।
इसके बाद टीका में उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि समान गुणवाले श्रमण के साथ निवास करने से शीतल घर के कोने में रखे हुए शीतल पानी की भाँति गुण रक्षा होती है और अधिक शीतल हिम के संपर्क में रहनेवाले शीतल पानी की भाँति गुणवृद्धि होती है।
यह तो मुनिराजों के संदर्भ में कथन हुआ; किन्तु यदि गृहस्थों के संदर्भ में बात करें तो जो गृहस्थ अपने से ज्यादा गुणवालों की संगति करेगा, उसे लौकिक दृष्टि से कदाचित् मान की हानि हो सकती है; क्योंकि सभी लोग अधिक गुणोंवाले का सम्मान करेंगे, उसका नहीं; अतएव लौकिक दृष्टि से कमगुणवालों को अपने से अधिक गुणवालों के साथ संगति करने में हानि ही हानि नजर आती है; पर बात ऐसी नहीं