Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 184
________________ ३६८ प्रवचनसार का सार मैं जो भी इसमें लिख रहा हूँ, वह अपने मन से नहीं लिख रहा हूँ, आगम के आधार से लिख रहा हूँ, साथ में मूल गाथाएँ एवं उनकी टीकाएँ भी मूलतः दे रहा हूँ। गाथा २५० की टीका का भाव इसप्रकार है - "जो श्रमण दूसरे की शुद्धात्मपरिणति की रक्षा हो - ऐसे अभिप्राय से वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है; वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्य से च्युत होता है। इससे ऐसा कहा है कि जो भी प्रवृत्ति हो, वह सर्वथा संयम के साथ विरोध न आये - इसप्रकार ही करनी चाहिए; क्योंकि प्रवृत्ति में भी संयम ही साध्य है।" टीका में यह कहा है कि यदि एक मुनिराज को तकलीफ हो तथा दूसरे मुनिराज उनकी सेवा कर रहे हैं। अब यदि वे मुनिराज इस स्तर पर सेवा करने लग जाए कि स्वयं की सामायिक ही छूट जाए अथवा पैर दबाते-दबाते किसी गृहस्थ से बातें करने लग जाए - इसप्रकार संयम की विराधना जो श्रमण करता है, वह श्रामण्य से च्युत होता है। उनका चित्त संयम में स्थिर हो - इस भावना से की गई सेवा से स्वयं का संयम खो देना बुद्धिमानी नहीं है। अपना सारा काम छोड़कर मुनिराज की सेवा गृहस्थ ही करते हैं। यदि मुनिराज स्वयं के सब काम छोड़कर सेवा करने में लग जावें तो वे भी गृहस्थ ही हैं। इसके बाद, प्रवृत्ति के विषय के दो विभाग बतलानेवाली गाथा २५१ की टीका भी दृष्टव्य है - ___“जो अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति करने से यद्यपि अल्प लेप तो होता है, तथापि अनेकान्त के साथ मैत्री से जिनका चित्त प्रवृत्त हुआ है - ऐसे शुद्ध जैनों के प्रति - जो कि शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान वृत्ति के कारण साकार-अनाकार चर्यावाले हैं, उनके प्रति, शुद्धात्मा की उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्ति के करने का निषेध नहीं है; किन्तु अल्प लेपवाली होने तेईसवाँ प्रवचन ___३६९ से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो - ऐसा नहीं है; क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकार से की जाय तो) उसप्रकार की प्रवृत्ति से पर के और निज के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं हो सकती।" इस टीका में आचार्य यह कहना चाहते हैं कि मुनिराज दूसरों की सेवा का ऐसा कोई काम न करें कि वे स्वयं अपने संयम से च्युत हो जाए। अपने यहाँ एक कहावत है कि 'दूसरों को जिमाने के चक्कर में खुद ही भूखे रह गए' लेकिन जैनदर्शन में खुद भूखे रहकर जिमाने की बात नहीं है अर्थात् दूसरों के संयम की रक्षा के लिए स्वयं का संयम छोड़ देने की बात जैनदर्शन में नहीं है। ___ इसप्रकार यहाँ तक यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि सेवा करनेवाले मुनिराज कैसे हो, तथा जिनकी सेवा की जाए वे मुनिराज कैसे हो। इस संबंध में मैं यह बताना चाहता हूँ कि ऐसे गृहस्थ जो स्वयं भ्रष्ट हैं, उनके द्वारा की गई मुनियों की सेवा वैयावृत्ति नहीं है। आजकल तो लोग अस्पताल खोलने को भी वैयावृत्ति कहने लगे हैं, आज जितने भी अरबपति और करोड़पति हैं; वे सभी अस्पताल खोलने की तैयारी में हैं। ___हिंसक दवाओं से सप्त व्यसनों में पारंगत लोगों का इलाज करना वैयावृत्ति नहीं है। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि लोग अस्पताल खोलने को भी वैयावृत्ति समझते हैं। हम यदि एक गोली खाए तो महाभ्रष्ट पंडित तथा जहाँ उन गोलियों का पूरा दवाखाना ही खुल रहा हो, वह वैयावृत्ति ? जिनकी शुद्धात्मपरिणति है तथा जो धर्मात्मा हैं, वे धर्म में स्थिर रहें - इसके लिए सेवा करना वैयावृत्ति है; किन्तु जिनमें धर्म का अंशमात्र भी नहीं है, उनकी सेवा में जिन्दगी लगा देना वैयावृत्ति नहीं है। इसी संबंध में गाथा २५१ का भावार्थ भी द्रष्टव्य है - "यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति से अल्प लेप तो 181

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