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प्रवचनसार का सार
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श्रामण्य में यदि अर्हन्तादि के प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है तो वह शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी चारित्र) है।
इस गाथा में आचार्य ने दो बातें ग्रहण की हैं - प्रथम तो अरहंतो के प्रति भक्ति और दूसरी प्रवचन में प्रेम रखनेवालों के प्रति वात्सल्य ।
जिसप्रकार लौकिक क्षेत्र में कुछ लोग अपने से बड़े होते हैं, कुछ बराबरी के होते हैं तथा कुछ छोटे होते हैं। हमारे माता-पिता, मामामामी, बुआ-फूफा, बड़े भाई व गुरुजन अध्यापक आदि बड़े लोग हैं। मित्रजन बराबरी के और अनुज व पुत्रादि छोटे होते हैं। मित्रजनों में भी कुछ छोटे और कुछ बड़े होते हैं। इसप्रकार लौकिक व्यवहार के लिए हम उन्हें दो भागों में ही बाँटते हैं - छोटे और बड़े।
उसीप्रकार इस गाथा में आचार्य से लेकर अरहंतों तक को एक श्रेणी में लिया, उनके प्रति मुनिराज भक्ति करते हैं तथा अपनी बराबरी एवं छोटे लोगों से वात्सल्य रखते हैं। यह अर्हन्तादि के प्रति भक्ति और प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्यरूप शुभभाव है।
गृहस्थ दशा में यदि पिताजी और माताजी मिथ्यादृष्टि हो तथा बेटा सम्यग्दृष्टि हो; तब भी बेटा अपने माता-पिता के पैर छुएगा, उचित सेवा-सम्मान करेगा; लेकिन यह वह पारिवारिक संबंध की वजह से कर रहा है, धर्म के कारण नहीं कर रहा है। ऐसा करने से उसे पुण्य-पाप एवं धर्म कुछ नहीं होगा; परन्तु मुनि अवस्था में यह नहीं हो सकता; क्योंकि उन्होंने तो समस्त व्यावहारिक संबंधों का परित्याग करके दीक्षा ले ली है। जब उन्होंने दीक्षा ली थी; उसीसमय अपने माता-पिता से यह कह दिया था कि न तुम मेरे माँ-बाप हो और न मैं तुम्हारा बेटा। अतएव मुनिदीक्षा लेने के बाद माँ-बाप जैसा व्यवहार नहीं होगा। इसप्रकार जो चारित्र में तथा धर्म में बड़े हैं, उनके प्रति मुनिराज भक्ति करते हैं तथा अपने से छोटों के प्रति वात्सल्यभाव रखते हैं। - यही भक्ति और वात्सल्य शुभोपयोगरूप है।
३६५ तदनन्तर, शुभोपयोगी श्रमणों की प्रवृत्ति बतलानेवाली गाथा २४७ इसप्रकार है
वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओण णिदिदा रागचरियम्हि ।।२४७।।
(हरिगीत) श्रमणजन के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन ।
विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं हैं जिनमार्ग में ।।२४७।। श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करने तथा उनका श्रम दूर करनेरूप रागचर्या निन्दित नहीं है। ___इस गाथा में श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्कार, अभ्युत्थान एवं अनुगमनरूप प्रवृत्ति तथा उनके श्रम दूर करने को निंदा करने योग्य नहीं लिखा । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि भाषा ऐसी है कि 'निन्दित नहीं है' यहाँ ये सब अच्छी हैं, यह नहीं लिखा। ___मुझे तो ऐसा लगता है कि यह गाथा सीधे मुमुक्षुओं के लिए लिखी गई हो तथा यदि स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो यह गाथा शुभोपयोग के कारण मुनियों की निन्दा करनेवालों के लिए लिखी गई है। इन क्रियाओं से मोक्ष नहीं होगा, अपितु बन्ध ही होगा; लेकिन उस भूमिका में ये क्रियायें निन्दा योग्य भी नहीं हैं।
इसी संबंध में इसी गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है -
"शुभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है; इसलिए जिन्होंने शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है - ऐसे श्रमणों के प्रति जो वन्दन, नमस्कार, अभ्युत्थान, अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने की वैयावृत्यरूप प्रवृत्ति है; वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है। अर्थात् शुभोपयोगी मुनियों के ऐसी प्रवृत्ति का निषेध नहीं है।' ___ 'शुभोपयोगियों के ही ऐसी प्रवृत्तियाँ होती हैं' - ऐसा प्रतिपादन करनेवाली गाथा २४८ इसप्रकार है -
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