Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 181
________________ तेईसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम में समागत चरणानुयोगसूचक चूलिका में शुभोपयोगप्रज्ञापन नामक अवान्तर अधिकार पर चर्चा हो रही है। सर्वप्रथम, समझने की बात यह है कि हम लोग जो ऐसा समझते हैं कि मुनिराज दो प्रकार के होते हैं - एक शुद्धोपयोगी तथा दूसरे शुभोपयोगी, पर ऐसा नहीं है। एक ही मुनिराज के कभी शुद्धोपयोग होता है तथा कभी शुभोपयोग होता है। यह एक ही मुनिराज के दो उपयोग की बात है; क्योंकि इस गाथा में स्पष्ट लिखा है कि धर्म से परिणमित स्वरूपवाले आत्मा के ये भेद हैं। शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी - ये भेद धर्मात्माओं के हैं; धर्म से परिणमित मुनिराजों के हैं। जो नग्न दिगम्बर हैं, अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं, प्रत्येक अन्तर्मुहुर्त में शुद्धोपयोग में जाते हैं - ऐसे मुनिराज जब शुद्धोपयोग में जाते हैं, तब शुद्धोपयोगी हैं तथा जब छटवें गुणस्थान में जाते हैं, तब शुभोपयोगी हैं। यह बात बहुत स्पष्ट है कि चाहे वे शुद्धोपयोग में हो या शुभोपयोग में - तीन कषाय चोकड़ी के अभावरूप निर्मल परिणति सदा विद्यमान होने से वे धर्मात्मा ही हैं। शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ये एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं तथा ये भेद तो समझाने के लिये किए गए हैं। ___ इस शुभोपयोगप्रज्ञापन नामक अधिकार में यही कहा गया है कि शुद्धोपयोग और शुभोपयोग - ये दोनों ही एक ही व्यक्ति में संभव है। मैं तो यह भी बताना चाहता हूँ कि शुभोपयोगी मुनिराज तो वे कुन्दकुद भी थे, जिन्होंने समयसार लिखा तथा यदि आचार्य अमृतचन्द्र शुभोपयोग में नहीं आते, तो हमें आत्मख्याति भी उपलब्ध नहीं होती। ___ जो शुद्धोपयोगी हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करेंगे तथा जो शुभोपयोगी हैं, वे स्वर्गसुख को प्राप्त करेंगे। गाथा में शुद्धोपयोगी को निरास्रव तथा तेईसवाँ प्रवचन ३६३ शुभोपयोगी को सास्रव कहा है अर्थात् शुद्धोपयोगी आस्रव से रहित हैं तथा शुभोपयोगी आस्रव से सहित हैं। यहाँ आचार्य यह बता रहे हैं कि भले ही शुभोपयोग शुद्धोपयोग के साथ हो; लेकिन वह शुभोपयोग बंध का ही कारण है और शुद्धोपयोग मोक्ष का कारण है। तद्भवमोक्षगामियों का शुभोपयोग भी बंध का ही कारण है। यहाँ आचार्यदेव इस बात का ज्ञान कराना चाहते हैं कि मुनिराज को शुभोपयोग में देखकर उनका निषेध कर दें - यह भी सही नहीं है तथा शुभोपयोग को मुक्ति का कारण मानना भी उचित नहीं है। यद्यपि जिनवाणी में शुभोपयोग को परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है, व्यवहारनय से मुक्ति का कारण कहा है; लेकिन उसका अर्थ यह है कि वास्तव में शुभोपयोग मुक्ति का कारण नहीं है। 'शुभोपयोग परम्परा से मुक्ति का कारण है' इसका तात्पर्य यह है कि यह जीव अगले भवों में मोक्ष जाएगा तथा इससे अर्थ यह निकलता है कि इस भव में मोक्ष नहीं जाएगा। 'शुभोपयोग से परम्परा से मोक्ष मिलेगा' अर्थात् साक्षात् नहीं मिलेगा अर्थात् इस भव में मोक्ष नहीं मिलेगा। 'शुभोपयोग परम्परा से मुक्ति का कारण है' यह निषेध करने की सभ्य भाषा है। इस प्रकरण में अभीतक एक बात अच्छी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि एक ही मुनि कभी शुभोपयोगी होते हैं तथा कभी शुद्धोपयोगी होते हैं तथा दोनों ही अवस्था में वे ३ कषाय चौकड़ी से रहित होते हैं। उनका शुभोपयोग बंध का कारण है तथा शुद्धोपयोग मोक्ष का कारण है। इसके बाद, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण बतानेवाली अगली गाथा इसप्रकार है अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विजदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ।।२४६।। (हरिगीत) वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत् आदि में। बस यही चर्या श्रमणजन की कही शुभ उपयोग है।।२४६।। 178

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