Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 179
________________ ३५८ प्रवचनसार का सार इस गाथा की टीका की अंतिम पंक्ति में लिखा है कि मुमुक्षुओं को सब कुछ आगमरूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिए। मैं इस पंक्ति की ओर इसलिए ध्यान आकर्षित करा रहा हूँ; क्योंकि हम सब मुमुक्षु हैं। मुमुक्षु को आगम के आधार से निर्णय करना चाहिए। इसके बाद, 'आगमरूप चक्षु से सब कुछ दिखाई देता ही है' - ऐसा समर्थन करनेवाली गाथा २३५ इसप्रकार है - सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ।।२३५।। (हरिगीत) जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित । जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ।।२३५।। समस्त पदार्थ अनेकप्रकार की गुण-पर्यायों सहित आगमसिद्ध हैं। उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा वास्तव में देखकर जानते हैं। __इस गाथा में यह कहा है कि सभी पदार्थ - द्रव्य-गुण-पर्याय आगम से ही सिद्ध हैं। आगम के बिना हम यह भी निर्णय नहीं कर सकते हैं कि क्या खाद्य है और क्या अखाद्य । अरे भाई ! विभिन्न खाद्य-अखाद्य पदार्थों की जानकारी हमें विभिन्न आगमों से ही प्राप्त होती है। हमें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए - इसका निर्धारण हम अपने ज्ञान से नहीं कर सकते। यदि हम आगम को नहीं मानेंगे तो फिर यह भी नहीं कह सकते कि २४ तीर्थंकर हुए हैं। बहुत-सी बातें हम ऐसी भी मानते हैं, जो हमारे उन पूर्वजों ने बताई हैं, जिन्हें हमने देखा भी नहीं है। यदि हम आगम नहीं माने तो हम यह भी नहीं बता सकते कि हमारे बाप के बाप भी थे। ____ अरे भाई ! पूर्वजों के द्वारा बताई हुई बात को ही आगम कहते हैं। लौकिक मामले में भी आगम है। आगम से ही समस्त निर्णय होते हैं; अत: मुमुक्षुओं को भी आगमचक्षु होना चाहिए। बाईसवाँ प्रवचन ____३५९ अब, आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्व का युगपत्पना होने पर भी, आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम - यह समझानेवाली २३८वीं गाथा इसप्रकार है जं अण्णाणी कम्मखवेदिभवसयसहस्सकोडीहिं। तंणाणी तिहिं गुत्तो सवेदि उस्सासमेत्तेण ।।२३८।। (हरिगीत ) विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें स्वासोच्छ्वास में। ना अज्ञ उतने कर्म नाशे भव हजार करोड़ में ।।२३८।। जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से उच्छ्वासमात्र में खपा देता है। इस गाथा का पद्यानुवाद छहढाला की चौथी ढाल के पाँचवें छन्द में इसप्रकार किया है - कोटिजन्म तप तपै, ज्ञान बिन कर्म झरै जे। ज्ञानी के छिनमाँहि त्रिगुप्ति तै सहज टरै ते ।। आगमज्ञानी आतमज्ञानी तो होते ही हैं। वह आगमज्ञान भी आत्मज्ञान के लिए ही है; क्योंकि यदि आत्मज्ञान नहीं करना हो तो आगमज्ञान की भी क्या जरूरत है ? मोक्षमार्ग पर चलने के लिए आगमज्ञान अत्यंत आवश्यक है। तदनन्तर आत्मज्ञानशून्य के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्त्व का युगपत्पना भी अकिंचित्कर है - यह उपदेश करनेवाली २३९वीं गाथा इसप्रकार है - परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विजदि जदिसो सिद्धिंण लहदिसव्वागमधरोवि ।।२३९।। (हरिगीत) देहादि में अणुमात्र मूर्छा रहे यदि तो नियम से। वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं।।२३९।। और यदि जिसके शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्छा वर्तती हो __176

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