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प्रवचनसार का सार सर्वथा निषेध्य है; इसीलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसकी वृत्ति प्रगट होती है - ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुसरण करने योग्य है।
इस गाथा के साथ ही आचरणप्रज्ञापन नामक अधिकार समाप्त हो जाता है; तदनन्तर गाथा २३२ से मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार प्रारंभ होता है। इस अधिकार में गजब की बात तो यह है कि इस अधिकार का नाम तो मोक्षमार्गप्रज्ञापन है; लेकिन इसमें आचार्य ने जोर स्वाध्याय पर दिया है। इस अवान्तर अधिकार की पहली गाथा इसप्रकार है -
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।।२३२।।
(हरिगीत) स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं।
भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।।२३२।। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है; एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है; पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है; इसलिए आगम में व्यापार मुख्य है।
इस गाथा में यह कहा है कि श्रमण एकाग्रतावाला होता है। एकाग्रता में 'एक' का अर्थ त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा है और 'अग्रता' का तात्पर्य जिसकी ओर उपयोग की मुख्यता है। इसप्रकार एकाग्रता' का तात्पर्य त्रिकाली ध्रुव आत्मा की ओर उपयोग करना है। एकाग्रता के बिना श्रमणता अर्थात् मुनिपना नहीं होता । एकाग्रता जिसने पदार्थों को अच्छी तरह जाना है, उसको ही होती है। जिसने वस्तु का स्वरूप ही नहीं समझा है, उसे एकाग्रता नहीं हो सकती। पदार्थों का निश्चय आगम से ही होता है।
इसप्रकार इस गाथा में आचार्य ने स्वाध्याय पर जोर दिया है। यह एक ऐसी गाथा है; जिसे दीवालों पर लिखा जाना चाहिए। मुझे भी यह गाथा इतनी प्रिय लगी कि मैंने इसका संकलन कुन्दकुन्दशतक में भी किया है।
इसके बाद “आगमहीन के कर्मक्षय नहीं होता” - ऐसा प्रतिपादन
बाईसवाँ प्रवचन करनेवाली गाथा २३३ इसप्रकार है -
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणतो अत्थेखवेदिकम्मणि किध भिक्खू ।।२३३।।
(हरिगीत ) जोश्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर कोनहिं जानते।
वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते।।२३३।। आगमहीन श्रमण आत्मा को (निज को) और पर को नहीं जानता। पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों को किसप्रकार क्षय करे ?
इस गाथा में यह कहा गया है कि जो श्रमण आगमहीन है, वह सही रूप से न अपने आत्मा को जानता है और न ही पर को जानता है तथा जो आत्मा को नहीं जानता है, वह कर्मों का नाश कैसे करेगा ? इसलिए आगम का स्वाध्याय करना ही सर्वश्रेष्ठ है।
तदनन्तर, 'मोक्षमार्ग पर चलनेवालों को आगम ही एक चक्षु है' - ऐसा उपदेश करनेवाली २३४ वीं गाथा इसप्रकार है -
आगमचक्खूसाहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ।।२३४।।
(हरिगीत ) साधु आगमचक्षु इन्द्रियचक्षु तो सब लोक है।
देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं ।।२३४।। साधु आगचक्षु हैं, सर्वप्राणी इन्द्रियचक्षु हैं, देव अवधिचक्षु हैं और सिद्ध सर्वत:चक्षु हैं।
इस गाथा में यह कहा है कि साधु आगमचक्षु हैं और सारी दुनिया इन्द्रियचक्षु है। सारा लोक तो आँखों से देखनेवाला है और साधु आगम से देखते हैं। यदि आगम में लिखा है कि आलू में अनन्त जीव होते हैं तो फिर आलू में अनन्त जीव होते ही हैं। साधु उसमें जाँच करने नहीं बैठते हैं। इसप्रकार साधु आगम के आधार से अपना आचरण करते हैं; इसलिए वे आगमचक्षु हैं।
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