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प्रवचनसार का सार तो वह भले ही सर्वागम का धारी हो, तथापि सिद्धि को प्राप्त नहीं होता।
आगम की महिमा गाते-गाते आचार्यदेव सावधान करते हुए कहते हैं कि सर्वागम का धारी होने पर भी यदि देहादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्छा है तो वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होगा। मूर्छा का अर्थ है ममत्व परिणाम - एकत्वबुद्धि-ममत्वबुद्धि ।
यहाँ मैं एक बात पर ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ कि यहाँ आचार्यदेव ने देहादि के प्रति मूर्छा की बात पर वजन दिया है। यहाँ तक कि रागादि के प्रति भी मूर्छा की बात नहीं की। यदि देहादिक में मूर्छा है, तो मूर्छा में भी मूर्छा है। यदि देह के प्रति मूर्छा का निषेध हो गया, तो विकारी पर्याय अर्थात् रागादि के प्रति मूर्छा का भी निषेध हो गया और पर का भी निषेध हो गया।
तात्पर्य यह है कि आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के साथसाथ आत्मज्ञान के होने की शर्त भी है।
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।।२४१।।
(हरिगीत) कांच-कंचन बन्धु-अरिसुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में।
शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में।।२४१।। जिसे शत्र और बन्धुवर्ग समान है, सुख और दुःख समान है, प्रशंसा और निंदा समान है, जिसे लोष्ट (मिट्टी का ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति समानता का परिणाम है, वह सच्चा श्रमण है।
इसी गाथा का अनुवाद छहढाला की छटवीं ढाल के छटवें छन्द में इसप्रकार किया है -
अरि मित्र महल मसान कंचन काँच निंदन थुति करन।
अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ।। तदनन्तर ‘आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने की सिद्धिरूप जो यह संयतपना है, वही मोक्षमार्ग है, जिसका दूसरा नाम एकाग्रता लक्षणवाला श्रामण्य है' इसका समर्थन
बाईसवाँ प्रवचन करनेवाली गाथा २४२ इसप्रकार है -
दसणणाण चरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु । एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ।।२४२।।
(हरिगीत) ज्ञानदर्शनचरण में युगपत सदा आरूढ़ हो ।
एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं।।२४२।। जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों में एक ही साथ आरूढ है; वह एकाग्रता को प्राप्त है - इसप्रकार शास्त्रों में कहा है। उसके ही परिपूर्ण श्रामण्य है।
तदनन्तर, 'अनेकाग्रता के मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता' - यह दर्शानेवाली गाथा २४३ इसप्रकार है -
मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज । जदिसमणो अण्णाणी बज्सदि कम्मेहिं विविहेहिं ।।२४३।।
(हरिगीत) अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेषमय ।
जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विधकेकर्म सब ।।२४३।। यदि श्रमण, अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ, मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है, तो वह विविध कर्मों से बंधता है।
इसके बाद, एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है - ऐसा निश्चित करते हुए मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार का उपसंहार करते हैं -
अट्टेसुजोण मुज्झदिण हि रजदिणेव दोसमुवयादि। समणोजदिसोणियदेखवेदिकम्माणि विविहाणि ॥२४४।।
(हरिगीत) मोहित न हो जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें।
वेश्रमण ही नियम से क्षय करेंविध-विध कर्मसब ।।२४४।। यदि श्रमण पदार्थों में मोह नहीं करता, राग नहीं करता, और न द्वेष को प्राप्त होता है तो वह नियम से विविध कर्मों को खपाता है।
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