Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 176
________________ प्रवचनसारका सार ३५२ उपरोक्त टीका में कहा है कि कायपुद्गल, वचनपुद्गल, सूत्रपुद्गल और चित्रपुद्गल - इन चार पुद्गलों की उपधि होती है अर्थात् चार पुद्गलों का ग्रहण होता है। कायपुद्गल तो शरीर हैं। गुरु के द्वारा कहे जाने पर आत्मतत्त्व द्योतक, सिद्ध उपदेशरूप वचनपुद्गल हैं। यहाँ वचनपुद्गल में गुरु के द्वारा कहे जानेवाले कहा है न कि लिखे जानेवाले। ____ मैं इस संबंध में कुछ अधिक नहीं कहना चाहता हूँ; क्योंकि मुनिराज तो शास्त्र रखते हैं, इसमें मुझे कुछ ऐतराज भी नहीं है; क्योंकि वे स्वाध्याय करेंगे तो बाह्य झंझटों से दूर रहेंगे। मैं तो यह बताना चाहता हूँ कि वचन तत्कालबोधक होते हैं, गुरु के द्वारा मुँह से जो वचन निकले, वे ही वचनपुद्गल हैं। 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस रूप में शब्दात्मक सूत्रपुद्गल होते हैं। मन में जो नमस्कार करने के भाव आते हैं; विनीतता के भाव होते हैं; विनय के भाव होते हैं, वे चित्रपुद्गल हैं। इसप्रकार इन पुद्गलों के परिग्रह को उपधि कहा है। यह उपधि भी अपवादमार्ग है, उत्सर्गमार्ग नहीं। इस संबंध में मैं यह कहना चाहता हूँ कि हर मुनि उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की मैत्रीवाले होते हैं। ऐसा नहीं होता है कि कोई मुनि उत्सर्गमार्गी हो और कोई मुनि अपवादमार्गी। हर मुनि उत्सर्गमार्गी भी है और पीछी-कमण्डलु, गुरु की विनय आदि के कारण अपवादमार्गी भी हैं। ___ जो मुनि एकल विहारी हो जाते हैं, उनके वचनपुद्गलरूप उपधि भी नहीं रहती; क्योंकि एकलविहारी होने से वे मौन ले लेते हैं, इसलिए बोलनेरूप वचनपुद्गल का परिग्रह नहीं रहता और आचार्यों के पास नहीं रहने से उपदेश नहीं सुनते हैं; अतः सुननेरूप वचनपुद्गल भी नहीं रहता । कई मुनि एकलविहारी हो जाते हैं। जो तद्भवमोक्षगामी होते हैं, वे एकलविहारी होते हैं। बाहुबली एकलविहारी थे; अतएव न वे बोलते थे, न सुनते थे। ऋषभदेव स्वयं भी एकलविहारी थे, उनके पास भी वचनपुद्गलरूप परिग्रह नहीं था, मात्र कायपुद्गल की उपधि थी। बाईसवाँ प्रवचन ३५३ तदनन्तर आचार्य ने उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की मैत्री का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उसी के अन्तर्गत उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण के सुस्थितपने का उपदेश करनेवाली २३०वीं गाथा इसप्रकार है बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ।।२३०।। (हरिगीत) मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही। वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें ।।२३०।। बाल, वृद्ध, श्रांत या ग्लान श्रमण मूल का छेद जैसे न हो; उसप्रकार से अपने योग्य आचरण करो। इस गाथा में यह कहा है कि कोई मुनिराज बालक हों, वृद्ध हों, थके हुए हो या बीमार हों; तो वे मुनिराज मूल का छेद न हो जाए - इसप्रकार अपनी चर्या में आचरण करें अर्थात् कठोर आचरण नहीं करें; क्योंकि यदि कोई बाल, वृद्ध या बीमार मुनि ८-८ दिन का उपवास करेंगे तो धर्म में बाधा खड़ी होगी, इसलिए वे मुनिराज कोमल आचरण करें। ___इस बात पर आचार्यदेव ने बहुत बढ़िया तर्क दिया है कि यदि बाल या वृद्ध साधु कठोर आचरण करेंगे तो देह छूट जाएगी और यदि देह छूटी तो स्वर्ग में जाएंगे। स्वर्ग में पहुँचते ही वे छटवें गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में आ जाएंगे। मुनि-अवस्था में छटवें गुणस्थान के योग्य संयम पल रहा था; पर स्वर्ग में पहुँचते ही असंयमी हो जाएंगे। मुनिराज की मनुष्य देह का छूटना संयम का छूटना है। 'असंयमी न हो जाय' इसलिए मुनिराज मृत्यु भी नहीं चाहते और 'संयम भंग हो' इस कीमत पर जीवन को भी नहीं चाहते । अतएव उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग में मैत्री होनी चाहिए। इसप्रकार आचार्यदेव ने कहा कि देह की स्थिति के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह देह अनुग्रह योग्य भी नहीं है और देह छूट जाय - ऐसा आचरण भी योग्य नहीं है। 173

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