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प्रवचनसार का सार आचार्य के स्वरूप के संबंध में उनका कहना है कि आचार्य बालक भी न हों, वृद्ध भी न हों और बीमार भी न हों; आचार्य तो ज्ञानवृद्ध होना चाहिए। आचार्य वयविशिष्ट, ज्ञानविशिष्ट एवं देहविशिष्ट होना चाहिए। आचार्य यदि बालक होंगे तो अनुभवी नहीं होंगे और दूसरे साधुओं को भी उनकी बात मानने में संकोच होगा; इसलिए आचार्य को वयविशिष्ट होना चाहिए। आचार्य वृद्ध नहीं होना चाहिए। जब वे अपनी चर्या ही मुश्किल से निभा पाएंगे, तो दूसरों से क्या कहेंगे । जब वे स्वयं शिथिलता का अनुभव करेंगे तो कठोरता के पक्षपाती कैसे होंगे? इसप्रकार वे सबकी शिथिलता को भी आसानी से बर्दाश्त करेंगे।
अत्यधिक जवान व्यक्ति भी आचार्य नहीं बन सकते; क्योंकि यदि आचार्य जवान होंगे तो उनकी अधिकांश शक्ति यौवन के उद्रेक से संघर्ष करने में ही निकल जाएगी। इसीलिए आचार्य न तो बूढ़े हों, न जवान हों, न बालक हों। आचार्य प्रौढ़ होना चाहिए अर्थात् बालकपना निकल गया हो, गंभीरता आ गई हो, शरीर ज्यादा शिथिल न हुआ हो; जिससे उठने-बैठने में तकलीफ न हो - इसप्रकार प्रत्येक मुनिराज की शरीर और मन की स्थिति के अनुसार उत्सर्ग और अपवादमार्ग की मैत्री होनी चाहिए। 'मुनिराज को आचरण में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए' इसका निर्धारण या तो मुनिराज स्वयं करते हैं या उनके आचार्य करते हैं।
शास्त्रों में तो यह भी आता है कि आचार्य एक ही गलती के लिए दो मुनिराजों को अलग-अलग प्रायश्चित देते हैं। किसी मुनिराज को उसी गलती के लिए ४ दिन का उपवास करने के लिए कहते हैं और अन्य मुनिराज को उसी गलती के लिए ४ दिन तक प्रतिदिन आहार लेने के लिए कहते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है; क्योंकि जिन्हें ४ दिन का उपवास करने के लिए कहा गया, वे मुनिराज जवान थे; अतः प्रतिदिन आहार लेने से आलस्य आने से सामायिक में नींद आ गई थी एवं दूसरे मुनिराज थोड़े वृद्ध थे, उनकी कमर में दर्द होने से उठने-बैठने, चलने में
बाईसवाँ प्रवचन तकलीफ होती थी अर्थात् उनमें कमजोरी आ गई थी, जिससे उन्हें सामायिक में नींद आ गई थी; इसलिए उन्हें ४ दिन तक प्रतिदिन आहार लेने के लिए कहा गया । इसीलिए यद्यपि दोनों का अपराध एक-सा था; तथापि उन्हें दण्ड अलग-अलग दिया गया। इसप्रकार आचार्य ऐसा आचरण करवाते हैं, जिससे उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की मैत्री बनी रहे।
देशकालज्ञ को भी, यह वह बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में मृदु आचरण में प्रश्न होने से अल्पलेप होता ही है, लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता; इसलिए उत्सर्ग अच्छा है।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से, आहार-विहार में मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प ही लेप होता है; इसलिये अपवाद अच्छा है।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से, जो आहार-विहार है, उससे होनेवाले अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो अति कर्कश आचरणरूप होकर अक्रम से शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है; उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतीकार अशक्य है - ऐसा महान लेप होता है; इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार से होनेवाले अल्पलेप को न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो अपवाद से होनेवाले अल्पबन्ध के प्रति असावधान होकर उत्सर्गरूप ध्येय को चूककर अपवाद में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवर्ते तो, मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधी को जिसका प्रतीकार अशक्य है - ऐसा महान लेप होता है; इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं
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उत्सर्ग और अपवाद के विरोध से होनेवाले आचरण का दुःस्थितपना