Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 173
________________ ३४६ प्रवचनसार का सार ३४७ ___ "उपधि के सद्भाव में, (१) ममत्व-परिणाम जिसका लक्षण है - ऐसी मूर्छा, (२) उपधि संबंधी कर्मप्रक्रम के परिणाम जिसका लक्षण है - ऐसा आरम्भ, अथवा (३) शुद्धात्मस्वरूप की हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है - ऐसा असंयम अवश्यमेव होता ही है; तथा उपधि जिसका द्वितीय हो (अर्थात् आत्मा से अन्य ऐसा परिग्रह जिसने ग्रहण किया हो) उसके परद्रव्य में लीनता होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है; इससे उसके ऐकान्तिक अन्तरंग छेदपना निश्चित होता ही है - ऐसा निश्चित करके उसे सर्वथा छोड़ना चाहिये।" इस टीका में कहा है कि जहाँ उपधि होगी; वहाँ मूर्छा भी रहेगी, आरम्भ भी होगा एवं तत्सम्बंधी असंयम भी होगा; इसलिए उपधि अर्थात् परिग्रह का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए। इसके बाद ग्रन्थ में यह चर्चा है कि पूरी उपधि तो त्यागी नहीं जा सकती; क्योंकि पीछी-कमण्डलु और शास्त्र तो रखने ही पड़ेंगे; पर उनका नाम उपकरण है, उपधि नहीं। अरे भाई ! जो करने योग्य कार्य है अर्थात् शुद्धोपयोग है, उसका नाम है करण और जो उस कार्य में सहयोगी होते हैं, उन्हें कहते हैं उपकरण। उपकरणों में पीछी तो अहिंसक जीवन का उपकरण है, संयम की जरूरत है और जीव-जन्तुओं की रक्षा के लिए आवश्यक है। कमण्डलु शुद्धि का उपकरण है; क्योंकि मल-मूत्र का क्षेपण तो रोका नहीं जा सकता; उनकी शुद्धि भी आवश्यक ही है। तीसरा उपकरण शास्त्र या गुरु के वचन हैं। जैसा कि गाथा २२२ में लिखा है - छेदो जेणण बिज्जदिगहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।।२२२।। (हरिगीत) छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसतरह । हो विसर्जन नीहार का भी क्षेत्र काल विचार कर ।।२२२।। बाईसवाँ प्रवचन जिस उपधि के (आहार-नीहारादि के) ग्रहण-विसर्जन में सेवन करनेवाले के छेद नहीं होता; उस उपधियुक्त कालक्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण वर्ते। अब, प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब मुनि को पीछी, कमण्डलु और शास्त्र रखने की अनुमति है; तब ये सब मार्ग के अन्तर्गत ही माने जाएंगे? इसका समाधान करते हुए आचार्य ने कहा कि मार्ग दो प्रकार का होता है - पहला तो उत्सर्ग मार्ग और दूसरा अपवाद मार्ग। ये पीछीकमण्डलु सहित मार्ग अपवाद मार्ग है। उत्सर्ग का अर्थ त्याग होता है और यह उत्सर्ग मार्ग ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग है, निश्चय मार्ग है। शुद्धोपयोग ही उत्सर्ग मार्ग है । पीछी-कमण्डलु रखना, शास्त्र रखना, गुरु के वचन सुनना - ये अपवाद मार्ग हैं और यह अपवाद मार्ग उत्कृष्ट मार्ग नहीं है। यह अपवाद मार्ग मार्ग थोड़े ही है, यह तो मजबूरी है; क्योंकि अशुद्धता आदि की परिस्थितियों में पीछीकमण्डलु के बिना रहना संभव नहीं है। उपकरण रूप उपधि का ग्रहण अपवाद मार्ग है। वे उपकरण भी अल्प, अनिंदित और मूर्छा से रहित होने चाहिए। यदि कमण्डलु धातु का बना हो, तो धातु के कीमती होने से उसके चोरी होने की संभावना बनी रहती है और यदि चोरी हो जाय तो फिर किससे माँगा जाय ? यदि एक बार धातु के कमण्डलु रखने लगे तो फिर सेठ लोग हीरे जड़े सोने-चाँदी के कमण्डलु देना प्रारंभ कर देंगे। इसलिए कमण्डलु लकड़ी का रखते हैं; क्योंकि कोई इसे ले नहीं जाए। मुनिराजों को ६ घड़ी सुबह, ६ घड़ी दोपहर, ६ घड़ी शाम सामायिक करनी है, कोई पीछी कमण्डलु को उठाकर नहीं ले जाए - यह चिन्ता यदि अन्दर में रही तो वे कमण्डलु आदि उपधि हो जाएंगे; क्योंकि वे सामायिक में बाधक होंगे। पीछी-कमण्डलु तो ऐसे होने चाहिए कि कोई ले न जा सके और 170

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