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प्रवचनसार का सार
अन्य मुनियों का परिचय, धार्मिक चर्चा-वार्ता - इनमें राग रखना अच्छी बात नहीं है, इनके विकल्पों से भी मन को रंगने देना योग्य नहीं है। अरे भाई ! मुनिराजों को तत्त्वचर्चा का भी रंग नहीं लगना चाहिए। तत्त्वचर्चा के नाम पर प्रतिदिन घंटों गपशप लगाते रहना भी अच्छी बात नहीं है।
भावार्थ में जो यह लिखा है कि 'आहार-विहारादि में भी प्रतिबंध प्राप्त करना योग्य नहीं है', इसमें प्रतिबंध प्राप्त करने का तात्पर्य प्रतिबंधित होना है। यदि तत्त्वचर्चा के लिए २ बजे से ३ बजे तक का समय निश्चित कर दिया, उस समय फिर दूसरी जगह जाने का विकल्प आ गया तो लोग कहेंगे कि महाराजजी ने समय दिया था और उस समय पर महाराजश्री ने तत्त्वचर्चा नहीं की, इसलिए मुनिराज इन सब के लिए अपने को प्रतिबंधित नहीं करते हैं; क्योंकि उससे संयम में छेद होता है।
तदनन्तर गाथा २१६ की टीका भी द्रष्टव्य है -
“अशुद्धोपयोग वास्तव में छेद है; क्योंकि उससे शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का छेदन होता है और वही हिंसा है; क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का हनन होता है। इसलिए श्रमण के, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती; ऐसी शयन-आसन-स्थान-गमन इत्यादि में अप्रयत चर्या उसके लिये सदा ही संतानवाहिनी हिंसा ही है, जो कि छेद से अनन्यभूत है।"
टीका में अशुद्धोपयोग को छेद कहा है। वास्तव में शुद्धोपयोग से अशुद्धोपयोग में आते ही छेद हो जाता है। यह छेद तो मुनिराजों के अनिवार्य ही है; क्योंकि मुनिराजों के छटवाँ-सातवाँ गुणस्थान तो होता ही रहता है अर्थात् वे छटवें से सातवें और सातवें से छटवें गुणस्थान में झूलते ही रहते हैं। इसप्रकार छेद एवं उसकी उपस्थापना तो निरन्तर बनी रहती है।
इक्कीसवाँ प्रवचन
टीका में अशुद्धोपयोग को हिंसा कहा है अर्थात् तीव्रतम शुभभाव भी हिंसा ही है; किन्तु आजकल इसे हिंसा कौन मानता है? आजकल जिस हिंसा को गृहस्थ भी नहीं करते हैं, उस हिंसा में मुनिराज प्रवृत्त दिखाई देते हैं।
मुझे याद है जब मैं छोटा था, तब मेरे पिताजी कहा करते थे कि बेटा! यदि बहुत पैसा भी हो जावे, तब भी मकान नहीं बनवाना, बना हुआ मकान ही खरीद हो लेना; क्योंकि मकान बनाने में बहुत हिंसा होती है। अभी प्रायः देखा जाता है कि नये-नये तीर्थ बनाने के लिए बड़ी-बड़ी पहाड़िया कट रही हैं, बुलडोजर चल रहे हैं।
अरे भाई ! जब मुनिराजों की चर्या में होनेवाली हिंसा के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है; तब उपरोक्त कार्यों का निर्देशन कहाँ तक उचित है ? मुनिराज तो कायिक चेष्टा से होनेवाली छेद की भी पुनः उपस्थापना करते हैं एवं विशिष्ट गलती के लिए प्रायश्चित करते हैं।
इसके बाद प्रवचनसार ग्रंथ की वह २१७वीं प्रसिद्ध गाथा आती है, जिसके आधार पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी एक श्लोक लिखा गया है। वह गाथा इसप्रकार है -
मरदुवजियदुवजीवोअयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।२१७।।
(हरिगीत) प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से।
तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ।।२१७।। जीव मरे या जिये अप्रयत आचार वाले के (अंतरंग) हिंसा निश्चित है; प्रयत के, समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्र से बंध नहीं है।
सारा जगत जीवों के मरने से हिंसा मानता है; लेकिन यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्द कह रहे हैं कि जीव मरे या नहीं मरे, उससे हिंसा नहीं होती; लेकिन अयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले के हिंसा नामक पाप निश्चित रूप से होता है।
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