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प्रवचनसार का सार जन्म लिया था, वैसा ही रूप । उस रूप के साथ एक लंगोट भी नहीं रख सकते तथा 'सिर और दाढ़ी-मूंछ के बालों का लोंच किया हुआ' होना चाहिए अर्थात् अपने केश अपने ही हाथ से उखाड़ने होंगे।
उन केशों को नाई से बनवाने में क्या दिक्कत है ?
अरे भाई ! यदि नाई से केश बनवाएंगे तो फिर उसके लिए पैसों की आवश्यकता होगी और पुन: सांसारिक चक्र प्रारम्भ हो जावेगा। नाई से केश बनवाना कोई स्वाधीन क्रिया नहीं है और उसमें शृंगार का भाव भी हो सकता है।
इन गाथाओं के बाद फिर वे गाथाएँ आती हैं, जिनमें यह बताया गया है कि गुरु दो प्रकार के होते हैं - एक तो दीक्षागुरु और दूसरे निर्यापक गुरु अर्थात् आचार्य और निर्यापक आचार्य।
आचार्य तो वे हैं जो दीक्षा देते हैं और निर्यापक आचार्यों को हम इसप्रकार समझ सकते हैं कि जैसे किसी आचार्य ने १००० शिष्यों को दीक्षा दी, लेकिन उन सभी की गल्तियाँ आदि देखने का समय उन आचार्यदेव के पास न हो, तब वे अपने ही सहयोगी अन्य मुनियों को यह जिम्मेदारी दे देते हैं कि यदि किसी मुनिराज से गलती हो जाय, तो तुम उन्हें प्रायश्चित विधि से शुद्ध करना । ऐसे काम निपटाने वाले अर्थात् निभाने वाले आचार्य निर्यापक आचार्य कहलाते हैं।
इसी बात को गाथा २१० की टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया है -
“जो आचार्य लिंगग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक होने से प्रव्रज्यादायक हैं, वे गुरु हैं; और तत्पश्चात् तत्काल ही जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापनासंयम के प्रतिपादक होने से छेद के प्रति उपस्थापक (भेद में स्थापित करनेवाले) हैं, वे निर्यापक हैं: उसीप्रकार जो (आचार्य) छिन्न संयम के प्रतिसंधान की विधि के प्रतिपादक होने से 'छेद होने पर उपस्थापक (संयम में छेद होने पर उसमें पुनः स्थापित करने वाले)' हैं, वे भी निर्यापक ही हैं।"
इक्कीसवाँ प्रवचन
___३३५ 'छेदोपस्थापक पर भी होते हैं' का तात्पर्य यह है कि दीक्षा देनेवाले आचार्यों के अलावा दूसरे भी होते हैं। चाहे जैसे लोग दीक्षा न ले लें; इसलिए आचार्य ही पूरी परख करके दीक्षा देते हैं। इससे एक तो अपात्र जीव दीक्षा नहीं ले पावेंगे और नियन्त्रण भी रहेगा। जिन्होंने दीक्षा ले ली है, वे अनभ्यस्त हैं; अत: उनको निर्यापक आचार्यों की देखरेख में क्रियाओं में निष्णात कर दिया जाता है। इसप्रकार यहाँ पर आचार्यदेव ने सारी प्रक्रिया का वर्णन किया है।
इसके बाद इसी संबंध में गाथा २११-२१२ की टीका भी द्रष्टव्य है
"संयम का छेद दो प्रकार का है - बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी बहिरंग छेद है और उपयोग संबंधी छेद अन्तरंग छेद है। यदि भलीभाँति उपयुक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह अन्तरंग छेद से सर्वथा रहित है; इसलिए आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है; किन्तु यदि वही श्रमण उपयोग संबंधी छेद होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा संयम का प्रतिसंधान होता है।"
जिसप्रकार विद्यार्थियों की कई गल्तियाँ तो ऐसी होती हैं कि उनके लिए डाँट-फटकार ही पर्याप्त है; कुछ गल्तियों के लिए दंड भी दिया जाता है; कुछ गल्तियों के लिए उन्हें संस्था से बाहर भी निकाला जा सकता है और पुनः भर्ती के लिए प्रवेश की पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़े तथा कुछ गल्तियाँ ऐसी भी होती हैं कि यदि एक बार निकाल दिया तो दुबारा भर्ती ही नहीं हो।
उसीप्रकार मुनिराजों में भी इसीप्रकार की गल्तियाँ होती हैं कि माफी माँगी और काम चल गया। कुछ गल्तियाँ ऐसी होती है कि सुधार के लिए तीन दिन का उपवास करने के लिए कह दिया जाय, उससे
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