Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 151
________________ प्रवचनसार का सार सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु । परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।।१८१।। (हरिगीत) पर के प्रति शुभभावपुण पर अशुभ तो बस पाप है। पर दुःखक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है ।।१८१।। पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशभ परिणाम पाप है - ऐसा कहा है; और जो दूसरे के प्रति प्रवर्तमान नहीं है - ऐसा परिणाम दुःख-क्षय का कारण है - ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। इस गाथा में यह कहा है कि पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य बंध का कारण है, पर के प्रति अशुभ भाव पाप बंध का कारण है और अपने प्रति परिणाम मोक्ष का कारण है। यहाँ पर आचार्यदेव ने अपने प्रति होनेवाले परिणाम में शुभ और अशुभ - ऐसा भेद नहीं किया है। अन्य के आश्रय से नहीं, अपितु अपने आश्रय से जो परिणाम होता है, वह परिणाम बंध का कारण नहीं; अपितु दु:ख के क्षय का कारण है। अपने लक्ष्य से जो परिणाम होता है, वह परिणाम शुभ या अशुभ नहीं होता है। 'मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है' यह परिणाम शुभ परिणाम है; क्योंकि यह आत्मा के लक्ष्य से नहीं है। जब आत्मा ज्ञान का ज्ञेय बनता है अर्थात् 'यह मैं हूँ ऐसी मान्यता होना, ऐसा ही जानना और उसी में रमना - ऐसे परिणाम को आत्मा के लक्ष्य से हुआ परिणाम कहा जाता है। भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाधथावरा य तसा। अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ।।१८२ ।। (हरिगीत) पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं। वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ।।१८२।। अब स्थावर और त्रस ऐसे जो पृथ्वी आदि जीवनिकाय कहे गये हैं, वे जीव से अन्य हैं और जीव भी उनसे अन्य हैं। उन्नीसवाँ प्रवचन ३०३ इस गाथा में जीव की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्व-पर का विभाग बताया है। वास्तव में कोई भी अपना नहीं है। पर को अपना या पराया कहना राग-द्वेष का कारण है; इसलिए अज्ञान है। कहा भी है - "मोहादि मेरे कुछ नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ। रागादि मेरे कुछ नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ। देहादि मेरे कुछ नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।" जैनदर्शन के अनुसार सारी दुनिया को दो भागों में बाँटा है। एक तो स्व है और दूसरा पर है। आचार्य कहते हैं कि स्व में प्रवृत्ति करो और पर से निवृत्ति करो। अन्य दर्शन में भी दुनियाँ को दो भागों में बाँटा जाता है। उनके यहाँ एक ओर राम है और दूसरी ओर गाँव अर्थात् उनके यहाँ सारी दुनियाँ को एक ओर रखा और राम को एक ओर रखा; लेकिन जैनदर्शन में दुनियाँ को इसतरह दो भागों में नहीं बाँटा है। जैनदर्शन में एक तो स्वयं आत्माराम है और दूसरे बाकी के अन्य सभी पदार्थ । अन्य दर्शन में जहाँ भगवान को अपने में रखा जाता है; वहीं जैनदर्शन में अरहंत और सिद्ध भगवान को भी पर में रखा जाता है। इस स्व-परभेद के ज्ञान के बिना अपना कल्याण संभव नहीं है, इसलिये ज्ञानतत्वप्रज्ञापन महाधिकार के ज्ञानज्ञेयाविभागाधिकार में स्व-पर के विभाग की चर्चा की है। अब, 'पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है' - ऐसे सन्देह को दूर करनेवाली १८५वीं गाथा इसप्रकार है - गेहदिणेवणमुंचदिकरेदिण हि पोग्गलाणिकम्माणि। जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु।।१८५ ।। (हरिगीत) जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को। जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े-परिणमे ।।१८५।। 148

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