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प्रवचनसार का सार
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार ग्रंथ के आरंभ में सिद्धों, अरहंतों और श्रमणों को नमस्कार किया है; उसीप्रकार यहाँ भी उन्हें नमस्कार करके मुनिपद अंगीकार करो।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में तो प्रतिज्ञावाक्य में यह कहा था कि मैं प्रवचनसार को कहूँगा और यहाँ इस गाथा में आचार्य कह रहे हैं कि 'श्रामण्यपने को अंगीकार करो'। 'श्रामण्यपने को किसप्रकार अंगीकार किया जाता है' - यह बात बताने की प्रतिज्ञा करके आचार्यदेव ने उसकी प्राप्ति करने का उपाय बताना भी आरंभ कर दिया है।
यहाँ पर २०१वीं गाथा की टीका की जो अंतिम पंक्ति है, वह ध्यान देने योग्य है -
“यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्त्मन: प्रणेतारो वयमिमे तिष्ठाम इति - उस श्रामण्य को अंगीकार करने के यथानुभूत मार्ग के प्रणेता हम यह खड़े हैं न।"
इस पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे किसी शिष्य ने आचार्यदेव से ऐसा प्रश्न किया हो कि - "आप जो श्रामण्य को अंगीकार करने की बात कर रहे हो, तो क्या यह संभव है ? तन पर वस्त्र नहीं रखना, भोजन नहीं करना, भोजन करने में भी अपने हाथ से बनाने की बात ही नहीं; यदि कोई स्वयं के लिए बनाए तो उसमें से भी विधिपूर्वक लेना - यह सब संभव है क्या ?"
तब आचार्यदेव ने इस पंक्ति के रूप में उत्तर दिया हो कि इस मार्ग के प्रणेता हम खड़े हैं न ? स्वयं को प्रणेता' कहकर आचार्यश्री शिष्यों को हिम्मत दे रहे हैं। हमें ये शब्द सुनकर ऐसा लग सकता है कि ये अभिमान से भरे शब्द हैं; किन्तु ये अभिमान से भरे शब्द न होकर आत्मविश्वास से भरे शब्द हैं अर्थात् शिष्यों में आत्मविश्वास भरनेवाले शब्द हैं। ___ यह वह पंक्ति है, जिस पंक्ति को पढ़ने के बाद गुरुदेवश्री उछल पड़े थे। वे इन शब्दों पर इतने रीझ गये थे, इतने भावविह्वल हो गये थे कि
इक्कीसवाँ प्रवचन
३२९ मानो अमृतचन्द्राचार्य साक्षात् ही उनसे यह कह रहे हों कि हम खड़े हैं न, क्यों चिन्ता करते हो?
इसके बाद श्रमण होने की प्रक्रिया में क्या-क्या है ? इसका स्वरूप बतानेवाली गाथा इसप्रकार है -
आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुतेहिं । आसिज णाणदंसणचरित्ततवरीरियायारं ।।२०२।।
(हरिगीत) वृद्धजन तियपुत्रबंधुवर्ग से ले अनुमति ।
वीर्य-दर्शन-ज्ञान-तप-चारित्र अंगीकार कर ।।२०२।। बंधुवर्ग से पूछकर और बड़ों से तथा स्त्री-पुत्र से छूटकर ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके....। ___ इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। जब कोई व्यक्ति दीक्षा लेता है या लेना चाहता है, तो वह क्या करता है या उसे क्या करना चाहिए - इस बात को उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है; जो मूलत: पठनीय है। ___इस गाथा में कथित बंधुवर्ग से तात्पर्य कुटुम्बीजन से है और 'गुरुकलत्तपुत्तेहिं' में गुरु का अर्थ माता-पिता, कलत्र का अर्थ पत्नी
और पुत्तेहिं का अर्थ पुत्र-पुत्रियाँ हैं। ___इस गाथा में आचार्यदेव ने शब्दों का चयन बड़ी सावधानी एवं बुद्धिमानी से किया है। बंधुवर्ग के साथ तो पूछकर' और माता-पिता आदि के साथ 'छूटकर' शब्दों का प्रयोग किया है। दीक्षा के लिए यदि बंधुवर्ग से पूछा जाता है तो वे सहज ही आज्ञा दे देते हैं; लेकिन माँबाप, पत्नी-बच्चे आदि आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं होते । वर्तमान में जिन्हें 'वन फैमिली' कहा जाता है और जो सबसे ज्यादा निकटतम होते हैं; उनमें माँ-बाप एवं पति-पत्नी और बच्चे ही आते हैं।
इसप्रकार कुटुम्बीजन अर्थात् बंधुवर्ग एवं माँ-बाप, पत्नी आदि के
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